आखिरकार लंबे संघर्ष के बाद अब सउदी अरब की महिलाएं भी दुनिया के अन्य देशों की महिलाओं की तरह कार चला सकेगी। बल्कि यों कहा जाएं तो अधिक ठीक होगा कि कार ही नहीं मोटरसाईकिल, ट्रक, वैन आदि भी चलाने के लिए स्वतंत्र हो गई है। सउदी अरब की महिलाओं की आबादी में 65 फीसदी महिलाएं 18 साल से अधिक उम्र की है और अब इन महिलाओं को कार चलाने की आजादी मिल गई है। दरअसल सउदी महिलाओं को इस स्वतंत्रता के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा और यहां तक कि संघर्ष की नायिका सामाजिक कार्यकर्ता मानल अल शरीफ को यूट्यूब पर वाहन चलाते वीडियों अपलोड करने के लिए जेल जाना पड़ा वहीं 2014 में ही लाउजैन अल हथगौल को 73 दिन की जेल काटनी पड़ी। देखा जाए तो यह सउदी महिलाओं के 28 साल के संघर्ष का परिणाम है तो दूसरी और इसका श्रेय सउदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के उदारवादी सोच को भी जाता है। 1990 में सउदी अरब की 47 महिलाओं ने नियम तोड़ते हुए शहर में वाहन चलाए और इसके परिणाम स्वरुप उन्हें गिरफ्तार किया गया। तब से ही महिला स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रही महिलाएं कार चलाने की स्वतंत्रता के लिए भी संघर्ष कर रही थी।
देर सबेर ही सही सउदी अरब में अब महिलाओं के प्रति कट्टरवादी सोच में बदलाव की बयार आई हैं। 2017 में सउदी महिलाओं को खेल के मैदान में जाकर वहां खेलों का लुत्फ उठाने की अनुमति दी गई। अब सउदी अरब की महिलाएं भी खेल स्टेडियम में जाकर में खेल प्रतियोगिताओं का आनंद लेने लगी है। हांलाकि यह अनुमति चुने हुए स्टेडियमों में ही है पर देर आयद दुरस्त आयद शुरूआत तो होने लगी है। हांलाकि सउदी अरब ने कट्टरता की छवि को तोड़ने के प्रयास 2015 से ही शुरू कर दिए थे। पहले स्थानीय निकाय के चुनावोें में महिलाओं को मतदान करने या चुनाव लड़ने की अनुमति दी गई। सउदी अरब के खेल प्राधिकरण के अध्यक्ष तुर्की अल अशेख ने खेल क्षेत्र में बड़े बदलावों की घोषणा करते हुए रियाद, दम्मम और जेद्दा के खेल स्टेडियमों में महिलाओं और परिवार के साथ आने आने वाले दर्शकों को अनुमति देने का निर्णय किया। अशेख ने राजकुमारी रीमा बिंत बंदार को सउदी फैडरेशन फॉर कम्यूनिटी स्पोर्ट का अध्यक्ष नामित किया। इसके परिणाम भी सामने आने लगे हैं और रीमा ने पहला कदम उठाते हुए जेद्दा में महिलाओं के लिए 5 स्टूडियो जिम खोले जा चुके हैं। रीमा का कहना है कि इससे महिलाओं को व्यायाम के प्रति प्रोत्साहित किया जा सकेगा।
21 वीं सदी में महिलाओं के प्रति लेंगिक भेदभाव होना बेहद चिंतनीय है। आज दुनिया के देशों में महिलाओें की भागीदारी कहां से कहां पहुंच गई है। अंतरिक्ष तक में महिलाओं की उड़ान होने लगी है। लगभग सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरुषों के समकक्ष होते हुए भागीदारी तय की है। प्रबंधन के क्षेत्र में तो महिलाओं का कोई सानी ही नहीं है। ऐसे में कुछ सउदी अरब जैसे कट्टरपंथी देशों में महिलाओं के प्रति दोयम दर्जें का व्यवहार चिंतनीय रहा है। महिलाओं के अधिकारियों के प्रति लंबे संघर्ष का ही परिणाम है कि 1955 पहलीबार लड़कियों को स्कूल में पढ़ने का अवसर मिलना शुरू हुआ। हांलाकि महिलाओं के विश्वविद्यालय बनने में पूरे 15 साल लग गए और 1970 में महिला विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। 2001 से महिलाओं के पहचान पत्र बनने लगे। कट्टरतावादी सोच में बदलाव का यह सिलसिला आगे बढ़ता गया और 2005 में जाकर जबरन विवाह पर रोक लगी। सउदी महिलाओं को सत्ता में भागीदारी का अवसर 2009 से मिलने लगा वहीं 2012 के सारा अतर को पहलीबार ओलंपिक में हिस्सा लेने का गौरव मिल सका। महिलाओं के प्रति सोच में बदलाव का यह सिलसिला जब एक बार चल निकला तो फिर धीरे धीरे बदलाव की बयार ही चल निकली है। 2015 में सउदी महिलाओं को चुनिंदा स्थानों पर साईकिल चलाने की अनुमति मिली।
महिलाओं के प्रति कट्टरता की छवि सुधार में सउदी अरब के प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को अधिक जाता है। महिलाओं के प्रति एक से एक क्रान्तिकारी निर्णय लेने में प्रिंस ने पहल की है। उनके प्रयासों से ही इससे पहले महिलाओं को राष्टÑीय दिवस में आमंत्रित कर अच्छा संकेत दिया जा चुका है। महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए अब जिस दिशा में सउदी अरब बढ़ रहा है वह निश्चित रुप से सराहनीय है। सउदी अरब ही नहीं दुनिया के अन्य कट्टरपंथी देशों को भी महिलाओं के प्रति अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। महिलाओं के साथ दोयम दर्जें का व्यवहार करने वाले देशों को भी संकुचित सोच के दायरें से बाहर निकलना होगा।
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