मगध के राजा चित्रांगद अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखते थे। उन्होंने अपने राज्य में अनेक विद्यालय, चिकित्यालय और अनाथालयों का निर्माण करवाया ताकि कोई भी व्यक्ति शिक्षा, चिकित्सा और आश्रम से वंचित न रहे। एक दिन अपनी प्रजा के सुख-दुख का पता लगाने के लिए वे अपने मंत्री के साथ दौरे पर निकले। उन्होंने गाँव, कस्बों व खेड़ों की यात्रा कर विभिन्न समस्याओं को जाना। कहीं सब ठीक था तो कही कुछ परेशानियाँ भी थीं। राजा ने चिंतित लोगों को उनकी समस्याओं के शीघ्र निदान का आश्वासन दिया।
एक दिन जंगल से गुजरते हुए राजा को एक तेजस्वी संत से मिलने का मौका मिला। संत एक छोटी-सी कुटिया में रहकर छात्रों को पढ़ाते और सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। आते समय राजा ने संत को सोने की मोहरें भेंट करनी चाहीं। संत ने कहा, राजन्, इनका हम क्या करेंगे? इन्हें आप गरीबों में बाँट दें। राजा ने जानना चाहा कि आश्रम में धनापूर्ति कैसे होती है, तो संत बोले- हम स्वर्ण रसायन से तांबे को सोना बना देते हैं। राजा ने चकित होकर कहा, अगर आप वह दिव्य रसायन मुझे उपलब्ध करा दें तो मैं अपने राज्य को वैभवशाली बना सकता हूँ। संत ने कहा- इसके लिए आपको एक माह तक हमारे साथ सत्संग करना होगा, तभी स्वर्ण रसायन बनाने का तरीका आपको बताया जाएगा। राजा एक माह तक सत्संग में आए। एक दिन संत ने कहा- राजन्, अब आप स्वर्ण रसायन का तरीका जान लीजिए। इस पर राजा बोले, गुरुवर, अब मुझे स्वर्ण रसायन की जरूरत नहीं है। आपने मेरे ह्रदय को ही अमृत रसायन बना डाला है। कथा सत्संग की महिमा को सार्थक करती है। सत्संग से व्यक्ति लोभ, मोह, वासना आदि विकारों से सहज ही मुक्त हो जाता है और उसकी आत्मा सात्विक प्रकाश से आलोकित हो जाती है।
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