नवम्बर, 1982 की बात है। भंडारे से दो दिन पहले हमने अपनी एक रिश्तेदारी में सरसा आना था। हमने कार्यक्रम बनाया कि भंडारे का सत्संग भी सुनकर आएंगे। हमारे साथ कुछ बहन भाई और भी तैयार हो गए, जिनमें से आठ नामदान लेने वाले जीव भी थे। उन दिनों पंजाब में उग्रवाद फैला हुआ था। पंजाब के साथ लगते हरियाणा के क्षेत्रों में भी बसों में सुरक्षाकर्मी तैनात होते थे। हमारी बस में भी एक सुरक्षाकर्मी अगली सीट पर ड्राईवर के पास और दूसरी पिछली सीट पर बैठ गया। जब अंधेरा सा होने लगा तो आगे वाला सुरक्षा कर्मी सोने लगा। मैंने उससे कहा कि भाई आपने तो गाड़ी की सुरक्षा करनी है और आप ड्राईवर के पास बैठकर सो रहे हो। उसने कहा कि ज्यादा शिक्षा देने की जरूरत नहीं है, चुपचाप खड़ा रह। मुझे बहुत दु:ख हुआ। मैंने पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज से मन में अर्ज की कि इसे भी सद्बुद्धि दो। बस पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी।
जब बस सौरखी गांव के पास पहुंची तो सामने से आ रहे एक ट्रक के साथ टकरा गई। मैंने उसी समय नारा लगाया। बस पलटते-पलटते बच गई, टक्कर बहुत भयंकर थी। किसी भी सवारी को ज्यादा चोट नहीं आई, परंतु उस सुरक्षाकर्मी की टांग टूट गई। उसके अभद्र व्यवहार के बावजूद भी जब हम उसे अस्पताल ले जाने लगे तो वह बहुत ही शर्मिंदा हुआ और उसने अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी। इसके बाद सभी कहने लगे कि तुम्हारे नारे ने हम सभी का बचाव किया है। इसके बाद सभी सवारियां कहने लगी कि उन संतों के दर्शन हमें भी करवाओ। उनमें से काफी सवारियां मेरे साथ चलने के लिए तैयार हो गई। हम रात को डेढ़ बजे सरसा आश्रम में पहुंच गए। सुबह की मजलिस के बाद जब शहनशाह जी तेरावास की ओर जा रहे थे तो हम रास्ते में ही बैठ गए। पूजनीय परम पिता जी हमारे पास आकर रूके और पूछा कि बेटा, किसी को कोई चोट तो नहीं आई। मैंने हाथ जोड़कर विनती की कि पिता जी, आप जी ने कृपा कर बस में सवार हम सभी को बचा लिया। पूजनीय परम पिता जी ने फरमाया, ‘‘बेटा, तुमने जो नारा लगाया था वह धुर दरगाह में पहुंचा और बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज ने काल का मुंह मोड़ दिया।’’ जब सभी लोगों ने ये वचन सुने तो सभी ने नाम ले लिया। यह सब पूजनीय परम पिता जी की दया मेहर रहमत से ही संभव हुआ।
श्री महेन्द्र सिंह, झज्जर (हरियाणा)
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