प्रेमी भोपाल सिंह (मास्टर) गांव शाहपुर बड़ौली जिला मेरठ (यूपी) से अपने प्यारे सतगुरु जी के एक प्रत्यक्ष करिश्में का इस प्रकार वर्णन करता है।
सन् 1978 की बात है, भोपाल सिंह ने उस वक्त तक नाम (गुरुमंत्र) नहीं लिया हुआ था। वह बाहरी कर्म काण्डों में ही फंसा हुआ था। एक बार वह मानसिक रोग का शिकार हो गया। वह रोग उसके पीछे ही पड़ गया था और ठीक होने का नाम नहीं ले रहा था। उसने इस बीमारी का बहुत इलाज करवाया, लेकिन वो ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी।
एक दिन की बात है प्रेमी भोपाल सिंह बीमारी के चलते परेशानी की हालत में अपनी चारपाई पर लेटा हुआ था। अचानक उसे महसूस हुआ जैसे कि उसका दम घुट रहा हो। एक बहुत ही भंयकर शक्ल वाला कोई उसके सामने खड़ा। उसे देखकर उसकी साँस फूल गई और आँखें पथरा गई थीं। कोई भी तो नहीं था उसे उस भंयकर स्थिति से छुड़ाने वाला। माँ-बाप, भाई-बहन कोई भी उसे नजर नहीं आ रहा था, जिसे कि वह अपनी मदद के लिए पुकारता। उसकी जीभ सुखकर तालू से लग गई थी और स्वांस रुक गए थे।
तभी उसे अचानक एक बहुत ही सुन्दर प्रकाश दिखाई दिया। वह उस भयंकर अन्धकार से निकल कर एक नूरानी प्रकाश में आ गया। ऊँचे-लम्बे कद सफेद पोशाक में एक अति सुन्दर नूरी चेहरे वाले बुजुर्ग (बाबा जी) उसके सामने आकर खड़े हो गए। उस महान हस्ती के दर्शन उसने पहली बार ही किए थे। अपनी मदद के लिए उस बुजुर्ग को देखकर उसकी जान में जान आ गई। बाबा जी के हाथ में पकड़ी लाठी को देखकर वह यमदूत हाथ जोड़ते हुए एकदम वहां से भाग गया।
बेशक उपरोक्त घटना को कई दिन बीत गए थे, परन्तु वह बाबा जी के उस सुन्दर नूरानी स्वरूप को भूला नहीं था। वह उन्हें ढूंढे तो कहां ढूंढे। तलाश करना तो उसके वश की बात नहीं थी, परन्तु उस सुन्दर इलाही स्वरूप की कशिश बराबर उसे अपनी ओर खींच रही थी।
उन्हीं दिनों में ही शहनशाहों के शहनशाह परम पिता शाह सतनाम जी महाराज ने किशनपुरा बराल का सत्संग मंजूर कर दिया। यह गांव डेरा सच्चा सौदा, बरनावा के प्रबंधक रांधी साहिब का पैतृक गांव है। अचानक उसी दिन एक प्रेमी उसे कह कर अपने साथ किशनपुरा बाराल ले गया, आ जा! आज परम पिताजी से तेरी बीमारी की बात करेंगे।
सत्संग पण्डाल में संगत खूब सजी हुई थी। पूज्य परम पिता जी स्टेज पर सुशोभित थे। ज्यों ही उसने सामने देखा तो अचम्भित ही रह गया। सामने स्टेज के ऊपर वही सुन्दर नूरी स्वरूप वही लिबास, वही भोली-भाली अदाएं, सब कुछ वही तो था। मेहरबान सतगुरु जी स्टेज पर विराजमान उसकी तरफ ऐसे भोले-भाले अंदाज में देख रहे थे मानो कह रहे हों, ‘‘आ गया भाई! बहुत अच्छा हुआ।’’
सच्चे पातशाह जी की कृपा से उसे उसी सत्संग पर ही नाम-दान मिल गया। कुल मालिक जी ने प्रत्यक्ष रहमत करके अपनी रूह के काल से बचाया। वहीं इतना धन और समय खर्च करने पर भी उसकी जो बीमारी ज्यों की त्यों थी। पूज्य परम पिता जी के दर्शन करने तथा नाम-दान प्राप्त करने से तुरंत बाद उसका मन, दिमाग व शरीर फूल से भी हल्का हो गया जैसे कि सिर पर रखे बहुत भारी बोझ को उतार कर कोई व्यक्ति राहत महसूस करता है।