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बहन दर्शना रानी इन्सां पत्नी सचखंडवासी मास्टर हंसराज , गांव माहूआणा बोदला, तह. व जिला फाजिल्का (पंजाब) सतगुरू जी की अपने ऊपर हुई अपार रहमत का वर्णन इस प्रकार बयान करती है।
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ऐ मालिक! हमारे परिवार पर ऐसी दया-रहमत करना कि हम भी अपने आखिरी स्वास तक आप जी के पवित्र चरणों से जुडे रहें जी।
दर्शना इन्सां बताती हैं कि उपरोक्त घटना सन् 1994 की है। बहन लिखती हैं कि मेरी शादी 1975 में हुई थी। मेरे पति हंसराज पंजाब के एक सरकारी स्कूल में पंजाबी के अध्यापक थे। मैंने तो पूजनीय परम पिता शाह सतनाम जी महाराज से नाम शब्द लिया हुआ था, परंतु मेरे पति ने तब नाम नहीं लिया था। समय-समय पर मैं बहुत ही नम्रतापूर्वक उन्हें नाम-शब्द ले लेने के लिए प्रेरित भी करती रहती लेकिन वो हर बार मेरी इस विनती को कोई न कोई बहाना बनाकर टाल दिया करते। लेकिन अति आश्चर्यजनक बात यह भी थी कि वे हम लोगों से ज्यादा अंतर मन से सतगुरू जी से जुड़े हुए थे। हर बार सत्संग पर जाना, समय मिलते ही दरबार में जाकर सेवा करना इत्यादि। छुट्टी का कोई भी दिन, रविवार या कोई सरकारी छुट्टी होती, तो आमतौर पर वे घर पर रहने की बजाय दरबार में ही चले जाते। कहने का मतलब कि उन्हें हमारे परिवार जनों से कहीं ज्यादा सतगुरू जी के प्रति श्रद्धा व विश्वास था। सिर्फ नाम-शब्द तब नहीं लिया था। मैंने एक दो बार पूजनीय परम पिता जी की पावन हजूरी में अपने पति को नाम-दान देने की विनती भी की थी, लेकिन पूजनीय परम पिता जी का हर बार यही जवाब होता, ‘‘बेटा! सुमिरन करते रहो, समय आने पर खुद ही नाम ले लेंगे।’’
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नाम-शब्द लेने की विधि इस तरह बनी :-
बहन दर्शना इन्सां बताती हैं कि सन् 1992 में हमारे गांव (माहूआणा बोदला) का भंगीदास (उस समय सेक्रेटरी कहा करते थे) उसकी मृत्यु हो गई। गांव की साध-संगत को तब तक भी मास्टर जी के बारे यह नहीं पता था कि उसने नाम नहीं ले रखा है। सारी साध-संगत उन्हें नामलेवा ही समझते थी। साध-संगत ने उन्हें भंगीदास की ड्यूटी करने के लिए बहुत ज्यादा मजबूर किया। पहले तो उन्होंने साफ मना कर दिया। मैं सरकारी मुलाजिम हूं। मेरे से यह पवित्र ड्यूटी निभाई नहीं जा सकेगी। इधर तो गांव की साध-संगत ने उन पर दवाब डाला(भंगीदास की ड्यूटी के लिए) और इधर मैंने भी उन्हें प्रेरित किया कि साध-संगत भंगीदास की पवित्र सेवा सौंपना चाहती है, आप नाम-शब्द लेकर ये ड्यूटी संभाल लें, तो लोगों को सत्संग व नाम-शब्द से जोड़ने का काम पहले से और भी ज्यादा कर सकेंगे। खुद बिना नाम लिए भी बहुत लोगों को पूज्य सतगुरू जी से उन्होंने नाम-शब्द दिलवाया था और यहां तक कि उनके आने-जाने का किराया-भाड़ा, खर्चा आदि भी वे अपने जेब से ही किया करते थे।
इस तरह ज्यादा मजबूर करने पर उन्होंने भंगीदास की सेवा के लिए हां कर दी। मैंने साध-संगत में सच्चाई भी बता दी कि मास्टर जी नाम-शब्द ले लेने के बाद भंगीदास की सेवा जरूर करेंगे। उपरोक्त घटना जनवरी 1992 के शुरू के दिनों की है। दिनांक 25 जनवरी पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज के पावन अवतार दिवस का पवित्र भंडारा था। मेरे पति भी पावन भंडारे पर डेरा सच्चा सौदा में साध-संगत के साथ गए और उन्होंने उसी पवित्र भंडारे पर पूज्य हजूर पिता जी से नाम-शब्द प्राप्त किया और इस तरह उसके बाद उन्होंने भंगीदास की सेवा ले ली। उस पवित्र सेवा को उन्होंने अपने अंत समय तक यानि (यानि दो वर्ष चार महीने) बहुत ही जिम्मेवारी से निभाया। उन्होंने दिनांक 1 जुलाई 1994 को अपना शरीर छोड़ा।
पूज्य गुरू जी ने उन्हें उनके अंत समय के बारे में एक महीना पहले ही सब कुछ दर्शा दिया था। मा. हंसराज ने एक दिन मुझे हंसते-हंसते बताया कि आज से सही एक महीने बाद वे अपने इस शरीर को छोड़कर परलोक अपने निज देश चले जाना है। वो हंस-हंसकर बातें भी कर रहे थे। उन्होंने बताया कि पूज्य गुरू संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने उन्हें अंदर से सारा दृश्य दिखाया है। उन्होंने यह भी बताया कि जिस दिन वो चोला छोड़ेगें, घर पर उस समय परिवार का एक भी मैंबर नहीं होगा। सत्संग, सेवा व पूज्य गुरू जी के दर्शनों के लिए गए होंगे। बातों-बातों में उन्होंने यह भी कहा कि वो थोड़े दिनों तक ही हमारे पास हैं। उन्होंने मुझे बच्चों को भली-भांति व अच्छे ढंग से पालन-पोषण करने की नसीहत दी और यह भी कहा यह मकान बेचकर कर हम लोग सरसा में रहें।
अपना चोला छोड़ने से चार दिन पहले उन्होंने मुझे घर के सारे हिसाब-किताब (लेन-देन) के बारे में समझाया, बल्कि उन्हीं दिनों उन्होंने अपने जीते-जी ही मकान का सौदा भी कर दिया और जिसका लेना-देना था, सब चुकता कर दिया। कभी-कभी उनकी बातें सच भी प्रतीत होती थी, लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है, मन यकीन नहीं करता था। बताए गए एक महीने का समय भी आ चुका था। हम लोग उस दिन पूज्य गुरू जी के दर्शनों को सत्संग व सेवा के लिए डेरा सच्चा सौदा में गए हुए थे। लोगों ने बताया कि बच्चे भी उस समय घर पर नहीं थे वे गांव में अपने हमजोलियों के साथ खेलने गए हुए थे। गांव वालों ने बताया कि मास्टर जी गांव की चौपाल में उन लोगों के साथ बातें कर रहे थे, इसी दौरान उन्होंने अपने अंदर से घबराहट होने की बात कही कि उन्हें बहुत ही घबराहट हो रही है। वे लोग उन्हें सहारा देकर घर पर ले आए। और इसी तरह घर पहुंचते ही उन्होंने हाथ जोड़े, नारा लगाया और देखते ही देखते पूज्य सतगुरू जी के चरणों में सचखंड जा समाए। उनकी मृत्यु का कारण हार्ट-अटैक बताया गया।
उस दिन वर्ष 1994 का एक जुलाई का दिन था। हमें आश्रम में आश्रम के जिम्मेवार सत्ब्रह्माचारी भाई मोहन लाल जी इन्सां व दर्शन सिंह जी इन्सां (प्रधान जी) ने एनाऊंमैंट करवाकर कमरा नं. 50 में बुलाया और बातों-बातों में मेरे पति के चोला छोड़ जाने के बारे में इस ढंग से बताया कि हमें सदमा भी न पहुंचे और सच्चाई भी बता दी। पूज्य गुरू जी ने महीना पहले जो दृश्य उन्हें दर्शाया था, बिल्कुल 100 प्रतिशत वो ही बातें सामने थी। हम भी घर पर नहीं थे, डेरे में गए हुए थे और हमारे बच्चे भी उस समय मौके पर घर नहीं थे। खेलने के लिए गए हुए थे। तो यह समझ आई कि सतगुरू जी अपनी संस्कारी रूहों की इसी तरह ही खुद संभाल करते हैं। मालिक ये यही दुआ है कि जिस तरह मेरे पति से अपनी आयु मालिक की सेवा व सुमिरन में लगाकर अपनी ओड़ निभा गए हैं, ऐ मालिक! हमारे परिवार पर ऐसी दया-रहमत करना कि हम भी अपने आखिरी स्वास तक आप जी के पवित्र चरणों से जुडे रहें जी। स्त्रोत : डेरा सच्चा सौदा के पवित्र ग्रन्थ
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