पूज्य हजूर पिता जी की बख्शिश
प्रेमी रामफल इन्सां सुपुत्र श्री भरत सिंह एसडीओ पीडब्लयूडी आईबी (हरियाणा) मकान नं. 561 सैक्टर 7 कुरुक्षेत्र। प्रेमी जी अपने सतगुरु मुर्शिदे कामिल पूजनीय हजूर पिता संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां के अपार रहमो-कर्म की बख्शिश का एक करिश्मा इस प्रकार वर्णन करता है।
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प्रेमी जी बताते हैं कि हमारी बेटी ज्योति को हमने वर्ष 2003 में शाह सतनाम जी गर्ल्ज स्कूल सरसा में दाखिला दिला दिया था। उस समय वह आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। वह हॉकी की अच्छी प्लेयर थी। जनवरी 2004 में उसने दो दिन की छुट्टी लेकर घर पर कुरुक्षेत्र में आने की बात की। हम उसे 25 जनवरी को छुट्टी दिलाकर अपने साथ ले आए। उस दिन हम पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज के पावन अवतार दिवस भंडारे पर सरसा दरबार में थे। 27 जनवरी को उसकी मम्मी उसे वापस स्कूल में छोड़ आई। इसके दो-तीन दिन के बाद ज्योति अचानक बीमार हो गई। स्कूल से हमें फोन पर यह सूचना दी गई थी। हमारे स्कूल में पहुंचने से पहले ज्योति को स्कूल प्रशासन द्वारा शहर के एक निजी अस्पताल में दाखिल करवा दिया गया था। हम लोग अस्पताल के डॉक्टर साहिबानों से मिले।
बीमारी की गंभीरता को देखते हुए उन्होंने उसे एम्स दिल्ली के लिए रैफर कर दिया था। स्कूल प्रशासन के आदेशानुसार दरबार की गाड़ी में उसे एम्स में ले जाया गया। हम दोनों (ज्योति के मम्मी-पापा) भी उसके साथ उसी गाड़ी में ही थे। अपनी बेटी की इतनी जल्दी बिगड़ी हालत को देख-देख कर हमारी आंखों से आंसू रुक नहीं रहे थे। हमारे दोनों बच्चों (बेटा-बेटी) में वह बड़ी थी। उसमें हमारा बहुत ज्यादा मोह था। सरसा अस्पताल से हम लोग शाम को निकले थे। अंधेरा तो रास्ते में ही हो गया था। मेरी पत्नी ने हमें बताया कि स्वयं पूज्य हजूर पिता जी एक लाल रंग के मोटरसाईकिल पर हमारी गाड़ी के पीछे-पीछे चल रहे थे। एम्स में भी दो तीन दिन के लगातार ईलाज के बाद भी ज्योति की अवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ था। आखिर 6 फरवरी 2004 को वह चोला छोड़ गई। हालांकि हमें भली-प्रकार पता था कि वह मालिक की रूह थी और मालिक की गोद में जा समाई है, लेकिन उसके बगैर दिल बहुत उदास रहने लगा था। रह-रहकर उसकी बातें, उसका चेहरा हमारी नजरों में घूमता रहता और हमें बहुत रूलाता क्योंकि घर में उससे मोह भी बहुत ज्यादा था।
6 अगस्त 2004 को जब मैं अपने घर पर रात को सो रहा था, करीब 2-3 बजे का समय रहा होगा, पूज्य हजूर पिता सन्त डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां, पूजनीय परम पिता जी के स्वरूप में सफेद रंग के घोड़े पर सवार होकर अचानक प्रकट हुए। पूज्य हजूर पिता जी घोड़े से उतर कर सामने सजी सुंदर ऊंची स्टेज पर जाकर विराजमान हो गए। बहुत ही मनमोहक दृश्य था। लेकिन साध-संगत में बैठे हुए भी मेरी आंखों से अपनी बेटी की याद में आंसू थम नहीं रहे थे। अचानक पूज्य हजूर पिता जी ने यहां से मेरी बांह पकड़ी, मुझे ज्यों का त्यों इसका अहसास भी हुआ था, पूज्य हजूर पिता जी ने पूछा, ‘बेटा, रो क्यों रहा है? मैंने अपनी बेटी ज्योति के बारे बताया कि ज्योति का हंसता-हंसता चेहरा अभी तक भी आंखों के आगे घूम रहा है। वह 6 फरवरी को एम्स में ईलाज के दौरान चोला छोड़ गई थी। पूज्य हजूर पिता जी ने फरमाया, ‘बेटा, उसके स्वास ही इतने थे। वह तो हमारे पास पहुंच गई है।’ पूज्य हजूर पिता जी ने पूछा, और कितने बच्चे हैं इस स्कूल में भेजने के लिए? मैंने विनती की, पिता जी, एक लड़का है वह ज्योति से छोटा है।
इस पर सतगुरु शहनशाह जी ने फरमाया, ‘बेटा, हमने तुम्हारे यहां (घर) एक लड़का और भी भेज दिया है।’ मैंने पिता जी का शुक्रिया अदा किया और घर पर पवित्र चरण टिकाने के लिए विनती की। पूज्य पिता जी ने फरमाया, ‘बेटा, पहले बताना था। अब तो हम कुरुक्षेत्र से निकल आए हैं।’ और यह कह कर पूज्य पिता जी ने एक सेवादार से हमारे घर का नम्बर, मकान नम्बर व पता आदि नोट करने का हुक्म फरमाया। बहुत ही सुंदर व मन को मोहने वाला नजारा था। जो मैं कभी भी नहीं भूल सकता। एक एत्तेफाक जान लो या सच्चे सतगुरु पूज्य हजूर पिता जी ने हमें एक अहसास करवाना था, क्योंकि दो दिन की छुट्टी के बाद हम ज्योति को 27 जनवरी 2004 को स्कूल होस्टल में छोड़ कर गए थे, तो पूज्य हजूर पिता संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने अपने वचनानुसार 27 जनवरी 2005 को हमारी ज्योति को लड़का बनाकर हमें लौटा दिया। उसका नाम हमने जतीन इन्सां रखा।
खास बात यह है कि जतीन की सारी क्रियाएं उसकी आवाज, उसका बोलचाल, बैठना उठना आदि हर बात अपनी बहन ज्योति से ही मिलती हैं। इस प्रकार पूज्य हजूर पिता जी ने जतीन इन्सां के रूप में अपनी अपार बख्शिश, तथा अपना पावन प्यार देकर ज्योति के प्रति तड़फ रहे हमारे हृदयों में शांति प्रदान की। एक दिन पूज्य पिता जी एक रात मेरे ख्यालों में एक मैहरून कलर की ट्रेन स्वयं चलाकर लाए। पूज्य पिता जी ने गाड़ी से उतर कर हमारी राजी खुशी पूछी तथा अपना पावन आशीर्वाद प्रदान करके उसी ट्रेन से वापस लौट गए।
पूज्य सतगुरु पिता जी का हम कभी देन नहीं दे सकते। ऐ हमारे मुर्शिद प्यारे! आप जी के दीद में ही हमारी ईद है। बस, आप जी का प्यार हमें मिलता रहे और अपने आखिरी स्वास तक हम लोग आप जी के पाक-पवित्र चरणों से जुड़े रहें जी।स्त्रोत : डेरा सच्चा सौदा के पवित्र ग्रन्थ, संकलन : सच कहूँ टीम
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