शासकीय विद्यालयों की व्यथा कथा

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प्रत्येक वह नाम बर्बाद है जिसके पूर्व शासकीय शब्द प्रयुक्त होता है यथा शासकीय चिकित्सालय, शासकीय भवन, शासकीय वाहन, शासकीय सड़क आदि-आदि इन्ही नामों की कड़ी में एक नाम है शासकीय विद्यालय।

शासकीय विद्यालय अर्थात् नि:शुल्क शिक्षा केन्द्र। शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के साथ ही 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए सरकार ने अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा उपलब्ध कराने की व्यवस्था की है। शिक्षा वह दर्पण है जिसमें समाज प्रतिबिंबित होता है। शिक्षा अमूर्त को मूर्त करती है। शिक्षा वह अप्रत्यक्ष निवेश है जो भविष्य का सृजन करती है।

प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने वाले शासकीय विद्यालय आज की स्थिति में बदहाल है। ये विद्यालय कब्र में पांव लटकाए बैठे हैं। इनके प्राण पखेरू कब उड़ जाएं, कुछ कहा नहंीं जा सकता। शासकीय विद्यालयों की दर्ज संख्या जिस गति से गिर रही है, उसकी परिकल्पना भी नहीं की गई थी।

लोगों को रोजगार देने वाला प्रदेश का सबसे बड़ा विभाग स्वयं बेरोजगारी के द्वार पर खड़ा है। मनुष्य को ज्ञानवान बनाने वाला यह विभाग स्वयं ज्ञान की याचना कर रहा है। लोगों को चक्षु प्रदान करने वाला यह विभाग स्वयं नेत्रहीन हो चला है। समाज को स्वयं के पैरों पर चलाने वाला विभाग स्वयं के लिए वैशाखी तलाश रहा है।

प्रश्न उठता है कि हमारे शासकीय विद्यालय इतनी बद्तर स्थिति को कैसे प्राप्त हो गए। सुख-सुविधाओं में वृद्धि हुई है। शिक्षा- तकनीक में अप्रत्याशित सुधार हुआ है। विद्यालयों की तस्वीर बदल गई है। शिक्षकों की कमी नहीं है। इन सबके बावजूद विद्यालयों का बेजान होना, बड़ा ही विरोधाभासी सत्य है।

‘घर को आग लगी घर के चिराग से’ वाली कहावत यहां चरितार्थ होती है। सरकारी विद्यालयों पर सरकार द्वारा किया जाने वाला निवेश निष्फल प्रमाणित हो रहा है। परिणामस्वरूप सरकार शासकीय विद्यालयों को निजी हाथों में देने की कवायद कर रही है। सरकार के निरन्तर प्रयासों के बावजूद शासकीय विद्यालयों की गुणवत्ता मे अपेक्षाकृत सुधार न होना बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह हैं। इन विद्यालयों में शिक्षक-भर्ती की गुंजाइश लगभग समाप्त होने के कगार पर है क्योंकि घटती दर्ज संख्या के कारण अतिशेष शिक्षकों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। इस वृद्धि की तुलना में रिक्तियों की संख्या बहुत कम है।

पालकों का विश्वास अब शासकीय विद्यालयों पर नहीं रहा। यहां कार्यरत् शिक्षकों को स्वयं पर विश्वास नही है क्योंकि ये अपने बच्चों को अशासकीय विद्यालयों में पढ़ा रहे हैं। ऐसी दशा मे आम पालक इन पर विश्वास क्यों करे? शासकीय शिक्षकों ने न केवल अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है बल्कि अपना पैर ही काटकर फेंक दिया है।

जिसका घर जल रहा है, उसे ही बाल्टी लेकर स्वयं दौड़ना होगा। आग को पूरी तरह बुझाकर जले हुए घर को नया स्वरूप देना होगा। स्वरूप भी ऐसा हो जिसे देखकर दुनियां की आंखें चुंधियां जाए। शासकीय विद्यालयों के विरोध में वाचाल स्वर शांत हो जाए। उजड़ते हुए शासकीय विद्यालयों को पुनर्जीवित कर अतीत गौरव पर खड़ा करना होगा अन्यथा इस विभाग को मध्यप्रदेश राज्य परिवहन निगम की स्थिति पर पहुंचते देर नहीं लगेगी।

अभी वक्त उतना नहीं गुजरा है कि स्थिति को संवारा न जा सके। शासकीय शिक्षकों को अपना आत्मबल बड़ा करना होगा। अशासकीय विद्यालयों में अध्ययनरत स्वयं के बच्चों को वापस शासकीय विद्यालय में लाकर पूर्ण समर्पण से शिक्षा देकर गुणवत्ता पानी होगी। ऐसा करने पर ही शासकीय विद्यालयों के भविष्य को सवांरा जा सकता है। ‘शिक्षक राष्टÑ निर्माता है’- इसे प्रमाणित करने का समय आ गया है।

-अशोक महिश्वरे

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