रंगभेद के खिलाफ रोजा पार्क्स ने जीती लड़ाई

अमेरिका में आज ही के दिन 1956 में रंग भेद के खिलाफ एफ्रो-अमेरिकी महिला रोजा पार्क्स की लड़ाई रंग लाई और सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बसों में होने वाले रंगभेद पर रोक लगाई जानी चाहिए। रंग-रूप, नस्ल और जाति के आधार पर किसी को कम और किसी को ज्यादा क्यों? कोई ऊंचा और कोई नीचा क्यों? नागरिक अधिकारों की लड़ाई की जननी कही जाने वाली पार्क्स ने अमेरिका में बराबरी की लड़ाई का बिगुल बजाया। 1955 में एक दिन जब वह काम से घर जाने के लिए बस में सवार हुईं तो गोरों के लिए आरक्षित शुरूआती 10 सीटें छोड़कर पीछे एक सीट पर जाकर बैठ गईं। इस बीच बाकी सीटें भी भर गईं थीं और एक श्वेत आदमी के बस में चढ़ने पर ड्राइवर ने पार्क्स से सीट छोड़ने को कहा। रोजा ने साफ इंकार कर दिया। यहीं से नागरिक अधिकारों की लड़ाई में रोजा ने कदम रख दिया।

हालांकि रोजा पार्क्स को बस में हुई इस घटना के लिए दोषी करार दिया गया और उनसे 10 डॉलर का जुमार्ना भी वसूला गया। ऊपर से उन्हें 4 डॉलर की कोर्ट की फीस अलग से देनी पड़ी। रोजा ने हिम्मत नहीं हारी और नस्ली भेदभाव से जुड़े इस कानून को चुनौती दी। लगभग एक साल तक उनके साथ दूसरे अश्वेत लोगों ने भी नगर निगम की बसों का बहिष्कार कर दिया। संघर्ष रंग लाया और 1956 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि एफ्रो-अमेरिकी अश्वेत नागरिक नगर निगम के किसी भी बस में कहीं भी बैठ सकते हैं। एक बार ओबामा डेट्रॉयट के हेनरी फोर्ड म्यूजियम भी गए थे जहां वह बस भी है जिसकी सीट पर बैठ कर रोजा ने पहली बार नस्लभेद का विरोध किया था। वह उस सीट पर भी बैठे जिसपर लगभग 60 साल पहले रोजा बैठी थीं। तब पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा, मैंने उस सीट पर बैठ कर उस साहस और शक्ति के बारे में सोचा जो हमने कुछ साल पहले देखी और जो हम बदलते समाज के साथ किसी न किसी रूप में देखते आए हैं।

 

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