पहले चुनावों में आम आदमी के रोटी, कपड़ा और मकान कहें या उनके जीवन निर्वाह से जुड़े मुद्दों पर सार्थक चचार्एं होती थीं। पार्टियां और प्रत्याशी अपना नजरिया व नीतियां समझाते नहीं थकते थे। अपीलें की जाती थीं कि बूथों पर मतदाता किसी के बहकावे में न आएं और मुद्दों के आधार पर ही वोट दें। लेकिन अब चुनाव में ऐसे मुद्दों को हाशिये पर डालकर बहकाने वाले मुद्दे उछाले जाते हैं। सारी बहस उन्हीं के इर्द-गिर्द होती है, ताकि मतदाताओं की जातियां व धर्म आगे आ जायें। फिर उन्हीं के आधार पर सरकार चुन लें और फुरसत से पश्चाताप करते रहें। इस बार विधानसभा चुनावों में भी यही दिख रहा है। पंजाब में पीने के पानी के जहरीले होने की समस्या चुनाव में मुद्दा नहीं बन पाई। पंजाब में दूषित पानी से लोग कैंसर का शिकार हो रहे हैं। हरित क्रांति लाने की कोशिशों के दौरान अत्यधिक अनाज उगाने के लिए अपनायी गयी कृषि पद्धति का यह दुष्परिणाम है।
रासायनिक उर्वरकों पर अधिक निर्भरता के चलते आनाज और पेयजल दोनों दूषित हो गये हैं। पंजाब में विधानसभा चुनाव खत्म हो चुके हैं और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी चार चरण संपन्न हो चुके हैं। इन चुनावों में नदियों का प्रदूषण न सत्तापक्ष के लिए कोई मुद्दा है, न ही विपक्षी दलों के लिए। नदियां न केवल प्यास बुझाती हैं, बल्कि आजीविका का माध्यम भी हैं। पारिस्थितिकी तंत्र और भूजल के स्तर को बनाये रखने में भी नदियों का बड़ा योगदान है। आज जो नदियां गंदगी ढोने को अभिशापित हैं, वे अपने अवतरण के वक्त से ही जीवन बांटती आयी हैं। बढ़ते प्रदूषण के कारण अस्तित्व के खतरे को झेल रही नदियों और उससे मानव जीवन को पैदा हो रहे अंदेशों पर चर्चा होनी आवश्यक है। इंग्लैंड की यॉर्क यूनिवर्सिटी के एक शोध से खुलासा हुआ है कि अब नदियों के जल के लिए पैरासिटामोल, निकोटिन, कैफीन, मिर्गी और मधुमेह की दवाएं भी खतरा बनती जा रही हैं।
यह समस्या किसी एक देश में नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में है। दवाओं से नदी जल प्रदूषण गंभीर समस्या है, क्योंकि ज्यादातर देशों में दवा उद्योग से निकले प्रदूषित जल के निपटान के कानून बने तो हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं हो रहा है। भारत में इसे लेकर न सरकारें सजग हैं और न ही लोग इतने जागरूक हैं कि सरकारों पर दबाव बना सकें। एक अनुमान के अनुसार, आजादी के बाद से अब तक गंगा की सफाई के नाम पर 22 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किये जा चुके हैं। अप्रैल, 2011 में गंगा सफाई की सात हजार करोड़ की एक योजना बनायी गयी थी। इसके लिए विश्व बैंक से एक अरब डॉलर का कर्ज भी लिया गया था। सरकार बदली तो ‘नमामि गंगे’ का भी कुछ कम जोर नहीं रहा, लेकिन न तो गंगा में पानी की मात्रा ही अपेक्षित स्तर तक बढ़ी और न ही प्रदूषण में उल्लेखनीय कमी आ पायी है। ऐसे में सवाल बड़ा हो जाता है कि ऐसे कर्तव्यहीनता के जोखिम को हम आगे और कितने वक्त तक उठा पायेंगे?
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