कोरोना के कारण लॉकडाउन के बाद अब अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में खाद्यान्नों के बढ़ते दाम चिंता का विषय बन रहे हैं। पश्चिम बंगाल, असम, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य इस दुविधा में हैं कि लॉकडाउन को पूरी तरह से खोला जाय या नहीं क्योंकि लॉकडाउन के कारण आपूर्ति की समस्या हो रही है और देश के विभिन्न भागों में खाद्यान्नों में कृत्रिम कमी हो रही है। एक ओर लोगों की क्रय शक्ति में गिरावट आयी है तो दूसरी ओर महंगाई बढ़ी है और इससे न केवल उपभोक्ताओं अपितु किसानों की समस्याएं भी बढ़ी हैं। खाद्यान्नों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि के बावजूद किसान गेहूं, मक्का, आलू और अन्य कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम मूल्य भी प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं और उसे अपनी फसल औने-पौने दामों पर बेचनी पड़ रही है। ढाबा, होटल, प्रसंस्करण संयंत्र आदि बंद पड़े हैं जिसके चलते सब्जियों और खाद्यान्नों की मांग कम हो गयी है और इसका सीधा असर कृषि उत्पादों पर पड़ रहा है।
वर्ष 2019 में मक्का 2200 रूपए प्रति क्विंटल बिक रहा था। इस बार इसका एक चौथाई मूल्य मिलने की संभावना भी नहीं है और इसलिए जिन किसानों ने पिछले वर्ष 20 लाख रूपए से अधिक कमाए थे इस वर्ष अच्छी फसल के बावजूद वे 5 लाख तक ही कमा पाएंगे। आलू और अन्य सब्जियों के दामों में भी गिरावट आ रही है। उपभोक्ता के लिए मूल्य अधिक है किंतु किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल रहा है। ग्रामीण क्षेत्र में इस वर्ष फरवरी तक आर्थिक वृद्धि की जो उम्मीद दिखायी दे रही थी अब वह उम्मीद समाप्त हो गयी है।
पिछले कुछ महीनों में आदान लागत में भी वृद्धि हुई है। सिंचित खेतों में फसल उगाने की लागत बढ़ गयी है क्योंकि डीजल के दामों में अत्यधिक वृद्धि हुई है। तेल के दामों के गिरकर 40 डॉलर प्रति बैरल तक आने का लाभ लोगों को नहीं मिल रहा है और कर और महंगाई के कारण लोगों को कष्ट हो रहा है। सरकारी मत यह है कि पेट्रोलियम उत्पादों का उपयोग केवल परिवहन के लिए होता है और अधिक किराए या मालभाड़े के नुकसान की भरपाई कर दी जाएगी किंतु यह एक भ्रम है। जो समाज ईंधन के लिए अधिक भुगतान करता है उसे कई तरह से नुकसान उठाना पड़ता है। इससे आय में कमी आती है, क्रय शक्ति में गिरावट आती है और अर्थव्यवस्था में मंदी आती है।
खाद्यान्नों के दामों में वृद्धि कोरोना से पहले होने लगी थी। दिसंबर 2019 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 14.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी जो दिसंबर 2013 के बाद सर्वाधिक वृद्धि थी। संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन के खाद्यान्न मूल्य सूचकांक में दिसंबर में 12.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई जो 2017 के बाद सबसे अधिक थी। हाल के समय में आलू, टमाटर, भिंडी, लौकी, बैंगन आदि सब्जियों के दामों में 20 से 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और इसका कारण श्रम लागत और परिवहन में वृद्धि बताया जा रहा है। साथ ही आपूर्ति में लगभग 15 प्रतिशत की कमी आयी है। मजदूरों के पलायन के कारण मजदूरों की कमी हो गई है जिसके चलते मजदूरी बढ़ गयी है और इसका प्रभाव सब्जियों और खाद्यान्नों के मूल्य में वृद्धि के रूप में देखने को मिल रहा है। सरकार द्वारा गरीब लोगों को खाद्यान्न देने के बावजूद गेहूं और चावलों के दामों में भी वृद्धि हो रही है।
ऐसा माना जा रहा है कि 11 राज्यों में नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण योजनानुसार नहीं हो पाया है। उपभोक्ता मामले मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 36 राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में उन्हें आत्मनिर्भर भारत योजना के अंतर्गत प्रवासी मजदूरों के लिए मई जून के लिए आवंटित 8 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न में से केवल 6.28 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न उठाया गया है और 30 जून तक 1.07 अर्थात 13 प्रतिशत खाद्यान्न का वितरण कियाग या है। आंध्र प्रदेश, गोवा, गुजरात, झारखंड, लददाख, महाराष्ट्र, मेघालय, ओडिशा, सिक्किम, तमिलनाडू, तेलंगाना और त्रिपुरा ने उठाए गए खाद्यान्नों के 1 प्रतिशत का भी वितरण नहीं किया है।
2019 में आम चुनावों के बाद से महंगाई बढ़ने लग गई थी। 2018 में भारतीय खाद्य निगम ने 36 मिलियन टन खाद्यान्नों की खरीद की थी और भारतीय खाद्य निगम के भांडागारों में 75 लाख मिलियन टन खाद्यान्न था जिनमें से 33 मिलियन टन गेहूं और 42 मिलियन टन चावल थे जो कुल उत्पादन का लगभग एक तिहाई था। इसका उपयोग आगामी नवंबर तक वितरण के लिए किया जाएगा और उस पर डेढ़ लाख करोड़ रूपए की लागत आएगी। किंतु वितरण बाजार आपूर्ति और अन्य कारकों में विसंगति के कारण महंगाई बढ़ रही है।
नि:शुल्क खाद्यान्न आपूर्ति के बावजूद ग्रामीण बाजारों में भी मूल्य में गिरावट नहीं आ रही है और उसका कारण बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों का गांवों की ओर पलायन बताया जा रहा है। खाद्य तेलों के दामों में भी वृद्धि हो रही है और इसका कारण सरसों तथा अन्य तिलहनों के दामों में वृद्धि तथा श्रम लागत, बिजली लागत और डीजल के मूल्य में वृद्धि है। इसके अलावा पिराई और मालभाड़ा लागत में भी वृद्धि हो रही है।
भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार अप्रैल से मुद्रा स्फीति बढ़ने लग गयी थी जब मूल्य सूचकांक 5.8 प्रतिशत से बढ़कर 8.6 प्रतिशत तक पहुुंच गया था अैर इसका कारण सब्जी, खाद्यान्न, दूध, दाल, खाद्य तेल और चीनी के दामों में वृद्धि था। भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति के अनुसार कोरोना महामारी का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव अपेक्षा से अधिक गंभीर है क्योंकि आपूर्ति बाधित हुई है और मांग में गिरावट आयी है। आर्थिक और वित्तीय कार्यकलापों के ठप्प होने के साथ साथ आजीविका और स्वास्थ्य सेवाएं भी बुरी तरह प्रभावित हुई हंै। समिति के अनुसार वित्तीय स्थिति में तत्काल सुधार लाए जाने की आवश्यकता है। रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कटौती की है। इससे जमाकर्ता, वरिष्ठ नागरिक और गरीब लोग प्रभावित हुए हैं।
वस्तुत: बयाज दरों में कटौती से किसी को लाभ नहीं हुआ अपितु कमजोर वर्गों की क्रय शक्ति में और गिरावट आयी। आय कर की ऊंची दरें बैंक प्रभार, बैंक कर्मचारियों का दुर्व्यवहार और जमा पर कर से अर्थव्यवस्था पर और दुष्प्रभाव पड रहा है। इन समस्याओं के समाधान के लिए कोई जादुई छड़ी नहीं है। किंतु नरम नीतियां अपनाकर तथा आयकर दरों में कटौती से तात्कालिक राहत दिलायी जा सकती है। हालांकि इससे राजकोष में फिलहाल कम राजस्व आएगा किंतु दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी जो देश के लिए अधिक लाभप्रद होगा। उदार कर व्यवस्था से महंगाई भी कम होगी। इससे प्रशासन की लागत में भी कमी आएगी और लोगों के हित के लिए कल्याणकारी कदम उठाए जा सकेंगे।
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