जनादेश के लिए दौड : हेराफेरी की राजनीति

Rigging Politics

नादेश का तापर्य है कार्य करने का प्राधिकार और चुनावी राजनीति में जनादेश का तात्पर्य नीतियों को लागू करने का प्राधिकार जो मतदाताओं द्वारा उस उम्मीदवार को दिया जाता है जो चुनावों में जीत प्राप्त करता है। चुनाव जीतने का तात्पर्य मतदाताओं का जनादेश प्राप्त करना है। विजेता उम्मीदवार द्वारा जनता को किए गए वायदों को लागू करने में सफलता या विफलता अगले चुनावों में मुददा बन जाती है। चुनावी जनादेश किसी विशेष नीति को आगे बढाने के लिए होता है और यह जनमत संग्रह के अलावा कोई कानूनी करार नहीं है। यह एक समझ और अपेक्षा है जो विश्वास पर आधारित होती है। विजेता उम्मीदवार द्वारा वायदों का सम्मान करने या न करने की संभावना भी बराबर होती है। प्रतिनिधिक लोकतंत्र कार्य करने की दृष्टि से सर्वोत्तम है और यह लोकतंत्र का सबसे लोकप्रिय स्वरूप है हालांकि प्रतिनिधित्व के तरीकों में अंतर है।

आधुनिक लोकतंत्र प्रमुख : एजेंट के संबंधों में विश्वास करता है जिसमें किसी विशेष व्यक्ति को अन्य लोगों की ओर से कार्य करने के लिए प्राधिकृत किया जाता है। हालांकि सभी लोगों द्वारा उसे प्राधिकृत नहीं किया जाता है अत: एजेंट को अपने मतदाताओं के पास गए बिना अपने निर्णयों को लागू करना होता है। जिन प्रतिनिधियों के पास जनादेश होता है उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र के न्यासी के रूप मे कार्य करना चाहिए। स्वतंत्र भारत के सात दशकों में अधिकतर समय जनादेश कांग्रेस के पास रहा है। उसने सीटों के मामले में बहुमत जीता है लेकिन मतों का बहुमत नहीं जीता है। उन सभी आम चुनावों में जिनमें कांग्रेस की जीत हुई उसे कुल डाले गए मतों में से 43 से 48 प्रतिशत तक मत मिले और सरकार बनाने के लिए ऐसा जनादेश बहुदलीय प्रणाली में ही संभव है। तथापि वे चुनावी जीते हैं और उनसे सरकार बनाने की वैधता प्राप्त होती है हालांकि यह किसी नीति या उम्मीदवार के लिए मतदाताओं का स्पष्ट या सकारात्मक जनादेश नहीं होता है।

2014 में भाजपा को 52 प्रतिशत सीटें मिली और उसे केवल 31 प्रतिशत मत मिले जबकि कांग्रेस को 19 प्रतिशत मत मिले और 8 प्रतिशत सीटें। बसपा को 4 प्रतिशत मत मिले किंतु वह एक भी सीट नहीं जीत पायी। कुछ क्षेत्रीय पार्टियों को इससे कम मत मिले किंतु उन्हें अधिक सीटें मिली इसका कारण यह है कि वे एक निश्चित क्षेत्र तक सीमित हैं। अन्नाद्रमुक को तमिलनाडू और पुडेचुरी में 3 प्रतिशत मत मिले किंतु उसे 7 प्रतिशत सीटें मिली। 2014 में जनादेश इसी तरह भाजपा नेता मोदी के लिए था जैसा 1971 में इंदिरा गांधी के लिए और 1991 में वाजपेयी के लिए था। भारत में चुनाव जीतने में नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अल्पमत से चुनावी जनादेश जीतना अनेक देशों में सामान्य बात है और ऐसी सरकारें सफलतापूर्वक कार्य करती रही हैं। भारत में 1952 में अल्पमत से जीते हुए उम्मीदवारों की संख्या 67.28 प्रतिशत, 1957 में 58.09 प्रतिशत, 1999 में 7.03 प्रतिात, 2004 में 75.87 प्रतिशत और 2009 में 82.68 प्रतिशत रहा है। चुनावी मैदान में अधिक पार्टियों के उतरने से लगभग प्रत्येक उम्मीदवार को मिलने वाले मतों में कमी आयी है। इसलिए चुनावी जनादेश और वास्तविक जनादेश दोनों अलग बातें हैं। लोकतंत्र की प्रातिनिधक प्रणाली में वास्तवकि जनादेश की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। वर्ष 2014 में 66.14 प्रतिशत और 2009 में 56.97 प्रतिशत मत पडे और वर्तमान में अब तक लगभग 69 प्रतिशत मत पड़े हैं। चुनावी गणित बताता है कि विजेता को वास्तविक जनादेश नहीं मिलता है। कम मत पडने का तात्पर्य है कि विजेता को स्पष्ट जनादेश नहीं मिला।

चुनावी आंकडेÞ बताते हैं कि विजेता उम्मीदवार वास्तव में अपने निर्वाचन क्षेत्र का सच्चा प्रतिनिधि नहीं होता है केवल कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान प्रतिशत 65 प्रतिशत से अधिक रहता है और मतदाता सूची से लोगों के नाम भी गायब रहते हैं। ऐसे परिदृश्य में उम्मीदवार प्रचार के दौरान अपनी पार्टी की नीितयों और कार्यक्रमों के लिए समर्थन मांगने के बजाय सामाजिक विभाजन और वोट बैंक के आधार पर वोट मांगता है और कई बार वोट खरीदता भी है। कुल मिलाकर यह बहुमत प्राप्त करने के लिए जनादेश की हेराफेरी की राजनीति है। प्रातिनिधिक लोकतंत्र की मूल धारणा शासन करने के लिए चुनाव में वैध जनादेश प्राप्त करना है।

यह कहा जा सकता है कि निर्वाचित सरकार को मतदाताओं का जनादेश केवल उसे लागू करने के लिए प्राप्त होता है जो उसने अपने चुनावी घोषणा पत्र में कहा है और उसे नीतियों और कार्यक्रमों में व्यापक बदलाव करने का जनादेश प्राप्त नहीं होता है। किंतु कोई भी वैध सरकार इतने सीमित क्षेत्र में नहीं सिमट सकती है और इसलिए नीतिगत बदलाव आते हैं और नई नई नीतियां अपनायी जाती हैं। इसीलिए सरकारों को शासन करने का तब तक जनादेश प्राप्त होता है जब तक उसे संसद का विश्वास प्राप्त हो। प्रातिनिधिक लोकतंत्र में जनादेश का मूल बिंदु बहुमत है और इसी से सरकार की स्थिरता सुनिश्चित होती है। किंतु कई मामलों में यह जनादेश नहीं मिलता है। मतदाताओं को राष्ट्रीय मुद्दों, विभिन्न पार्टियों की नीतियों आदि की जानकारी नहीं होती है ओर वे तत्कालीन स्थानीय मुद्दों के आधार पर मतदान करते हैं। क्षेत्रीय पार्टियों के मामले में उम्मीदवारों ओर पार्टियों की राष्ट्रीय मुद्दों पर नीति नहीं होती है और एक तरह से संसद के चुनावों में उन्हें वोट देना निरर्थक है। क्षेत्रीय पार्टियों के लिए राष्ट्रीय नीतियों पर जनादेश देना तब तक निरर्थक है जब तक वे किसी राष्ट्रीय पार्टी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं करते हैं।

मतदाताओं को नकद और वस्तुओं के रूप में उपहार देकर और अनेक लोक लुभावने वायदे कर खरीदने का भी प्रयास किया जाता है। पार्टियों ओर उम्मीदवारों का एक मात्र उद्देश्य चुनावी जनादेश प्राप्त करना होता है। नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा देने के लिए पार्टियां अपरिहार्य हैं इसके लिए वे मतदाताओं के समक्ष अपने विचारों को रखते हैं ओर उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदार बनने का अवसर देते हैं। उनकी वैध, निश्चित और स्थायी भूमिका है। चुनाव में पार्टी या पार्टियों को जनादेश सीटों के बहुमत के लिए होता है। सरकार बनाने की दिशा में पहला कदम पार्टी के भीतर जनादेश प्राप्त करना है और इसी के चलते आज पार्टियां पारिवारिक कंपनी की तरह बनती जा रही हैं। भारत में इसका अपवाद केवल भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियां हैं।

  वर्तमान में प्रचलित सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार की जीत का विकल्प आनुपातिक प्रतिनिधित्व है जिसे अनेक देशों में अपनाया गया है। अभी हाल में ब्रिटेन ने भी मेक माई वोट काउंट नामक अभियान चलाया गया जिसके अंतर्गत आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग की गयी। प्रमुख नीतिगत मुद्दों पर राष्ट्रीय आम सहमति के अभाव में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली कार्य नहीं कर पाएगी और हमारी प्रणाली का जो लोकतांत्रिक स्वरूप बचा है वह भी नष्ट हो जाएगा। आज पार्टियां अपने प्रतिद्वंदियों के कार्य में बाधा पैदा करने में विश्वास करती हैं। वे एक टीम की तरह कार्य नहीं कर सकती हैं। इसलिए हमें मतदाताओं को चुनावी जनादेश के बारे में शिक्षित करना होगा किंतु इस बारे में राजनीतिक दल विफल रहे हैं।
डॉ. एस. सरस्वती

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