1947 से पूर्व भारत में अंग्रेजों को उखाड़ फेंकों के नारे सुनाई देते थे और उन नारों में राष्ट्रवाद की झलक होती थी। सभी लोग भारत को एकजुट और धर्मनिरपेक्ष बनाने का संकल्प लेते थे। किंतु वर्ष 2018 में मेरे भारत महान में अन्य राज्यों के बाहरी आम आदमियों को खदेड़ने की बात हो रही है और उन पर संबंधित राज्यों के मूल निवासियों द्वारा कर्फ्यू लगाया जा रहा है। इसमें क्षेत्रीय देशभक्ति की छाप है। हर कोई अपने-अपने राज्य को अधिक स्थानीय बनाने की बातें कर रहा है। गुजरात से हाल ही में बिहारियों और उत्तर प्रदेश के भैया लोगों के पलायन का कारण पिछले सप्ताह राज्य के साबरकांठा जिले में एक बिहारी युवक द्वारा 14 वर्षीय युवती के साथ बलात्कार की घटना है। इससे राज्य में क्षेत्रवाद की भावनाएं भड़क गयी और लोग गुजरात गुजरातियों के लिए और उत्तरी भारतीयों को बाहर भेजो की बातें करने लग गए हैं।
जिसके चलते गरीब प्रवासी मजदूरों को पीटा जा रहा है, उन पर हमला किया जा रहा है और उन्हें धमकी दी जा रही है हालांकि मुख्यमंत्री रूपाणी ने उनकी सुरक्षा और हमलावरों के खिलाफ कार्रवाई करने का आश्वासन दिया है। इसी तरह अक्तूबर 2014 में बंगलुरू में पूर्वोत्तर क्षेत्र के लोगों के विरुद्ध अभियान चला था। उस समय कन्नड न बोलने के कारण पूर्वोत्तर के दो छात्रों की पिटायी की गयी थी और उनसे पूछा गया था कि क्या वे जापानी, चीनी या कोरियाई हैं। इससे पूर्वोत्तर क्षेत्र में आक्रोश फैल गया था। मुंबई में कुछ वर्षों के अंतराल में उत्तर भारतीयों के विरुद्ध ऐसा अभियान चलता रहता है। पंजाब और असम में भी बिहारियों के साथ यही बर्ताव होता है। प्रश्न उठता है कि क्या हम जातिवादी हैं? क्या क्षेत्रवाद हमारी मानसिकता में बैठ गया है? घृणा फैलाने वालों पर कैसे नियंत्रण किया जाए? क्या हमारे राजनेता इस क्षेत्रवाद के प्रभावों को समझते हैं? क्या इससे लोगों में क्षेत्रीय आधार पर और मतभेद नहीं बढेंÞगे?
आज के प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र में यदि जातिवादी राजनीति से चुनावी लाभ मिलता है तो क्षेत्रवादी राजनीति के माध्यम से मतदाताओं का धु्रवीकरण होता है और कोई इस बात की परवाह नहीं करता कि इसके परिणाम विनाशक हैं। इससे हिंसा फैल सकती है और इसके चलते क्षेत्रवाद और सांप्रदायिकता बढ़ सकती है। क्षेत्रवाद की शुरूआत साठ के दशक के आरंभ में तमिलनाडू से हुई जहां पर द्रमुक के गठन के साथ राज्य की जनता केन्द्र से कट सी गयी थी। बाद में द्रमुक का विभाजन हुआ और अन्नाद्रमुक नई पार्टी बनी। उसके बाद महाराष्ट्र में क्षेत्रवाद ने अपना सिर उठाया तथा कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे मराठियों के स्वयंभू हितैषी बने और उनकी शिव सेना ने मराठी मानुष का नारा दिया और उनके अनुसार मुंबई में 28 प्रतिशत महाराष्ट्रियों को छोड़कर सब लोग बाहरी थे और उनके इस अभियान का पहला शिकार दक्षिण भारत के कुशल श्रमिक बने जिन्हें लुंगीवाला कहा गया और उनके व्यवसाय पर हमला किया गया। उसके बाद गुजरातियों का नंबर आया।
फिर उत्तरी भारतीय, उत्तर प्रदेश के भैया और बिहारी लोगों का नंबर आया। 70 के दशक में असम में विदेशी नागरिकों के विरुद्ध अभियान चला जब आॅल असम स्टूडेंटस यूनियन ने अवैध बंगलादेशी प्रवासियों को बाहर खदेड़ने के लिए आंदोलन चलाया और इसके चलते राज्य की कांग्रेस सरकार की हार हुई और असम गण परिषद् की सरकार बनी। नागालैंड और मणिपुर में छात्र चाहते हैं कि सभी गैर-नागा और गैर-मणिपुरी राज्य छोड़ दें। इन राज्यों में क्षेत्रवाद बढ़ता ही चला गया।
नवंबर 2003 में असम में 20 हजार बिहारी छात्रों को गोहाटी में भर्ती परीक्षा में बैठने नहीं दिया गया और इसका बदला बिहारियों ने पूर्वोत्तर क्षेत्र की ट्रेनों को रोककर और वहां के लोगों को पीटकर दिया। उसके बाद असमियों ने 52 बिहारियों को मार गिराया और इसमें उल्फा और आॅल बोडो स्टूडेंट यूनियन भी शामिल हो गया और उनका नारा था सभी हिन्दी भाषी असम छोडें जबकि बिहारियों ने नारा दिया असमियों को पकड़ो और मारो।
इस स्थिति में केवल स्थानीय लोगों को ही दोष क्यों दें? हमारे नेता भी क्षेत्रवाद में विश्वास करते हैं। वर्ष 1999 के लोक सभा चुनाव में भाजपा ने लखनऊ से कांग्रेस के उम्मीदवार तथा जम्मू कश्मीर के पूर्व सदर- -ए-रियासत कर्ण सिंह को बाहरी उम्मीदवार बताया और वाजपेयी को स्थानीय उम्मीदवार बताया जबकि लखनऊ और वाजपेयी के जन्म स्थान ग्वालियर के बीच काफी दूरी है। इसी तरह संघ ने हिमाचल में वाजपेयी को स्थानीय बताया। वे मनाली से बहुत प्रेम करते थे। पार्टियों और नेताओं द्वारा क्षेत्रवाद को बढ़ावा दिया गया। पूर्व प्रधानमंत्री और किसान नेता चरण सिंह ने किसानों की पार्टी जनता पार्टी का गठन किया तो देवीलाल ने हरियाणा में लोक दल का गठन किया। पंजाब में बादल ने अकाली दल का, आंध्र में एनटी रामाराव ने तेलुगु देशम का, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने तूणमूल कांग्रेस और ओडिशा में नवीन पटनायक ने बीजद का गठन किया और इन सबका एक ही नारा था – हम स्थानीय हैं, हमें शासन करना चाहिए। दिल्ली दूर है।
मंडलीकरण ने क्षेत्रवाद को और बढ़ावा दिया और इसके बाद मेड इन इंडिया नेताओं मायावती, मुलायम, लालू आदि ने इसे और हवा दी। अब मतदाता केन्द्रीय पार्टियों को पसंद नहीं करते। वे अपनी बिरादरी को पसंद करते हैं। हमारे देश में केवल जातियां और उपजातियां ही नहीं हैं अपितु हमें बिहारी, हरियाणवी, उत्तर प्रदेश का भैया, मद्रासी आदि की समस्याओं से निपटना पड़ता है। हमारे देश में भाषा, खानपान, रीति रिवाज अलग-अलग हैं और हमरी विशद क्षेत्रीय विविधता का उपयोग विभिन्न समुदायों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने के लिए किया गया। इसका उदाहरण यह है कि उत्तर भारतीय मद्रासी और उनकी भोजन की आदतों को पसंद नहीं करते। जबकि दक्षिण भारतीय सोचते हैं कि पंजूस जोर-जोर से बोलते हैं और केवल भांगडा कर सकते हैं। बंगाली स्वयं को बुद्धिजीवी समझते हैं तो बिहारियों से आईएएस बनने की अपेक्षा की जाती है। पश्चिम में गुज्जू हैं तो उत्तर प्रदेश में भैया और इसके चलते लोगों में मतभेद बढते जाते हैं और स्थानीय लोग बाहरी लोगों के प्रति भेदभाव करते हैं।
नि:संदेह देश के नागरिकों को संपूर्ण देश में रोजगार के समान अवसर मिलने चाहिए। समस्या तब होती है जब स्थानीय लोग अपना हिस्सा मांगते हैं और यह कुछ हद तक सही भी है क्योंकि बाहरी राज्य के लोग किसी अन्य राज्य में छोटी-मोटी नौकरी के लिए क्यों आवेदन करते हैं। यदि स्वीपर या हेल्पर की नौकरी भी बाहरी लोगों को दी जाने लगे तो स्थानीय लोग कहां जाएंगे? क्या वे आतंकवादी बनें और बंदूक उठाएं? क्या इससे राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी? जो राज्य आतंकवाद ग्रस्त हैं उनके आंकडों से पता चलता है कि बेरोजगार स्थाानीय युवक आतंकवादी संगठनों में शामिल हो रहे हैं क्योंकि उनके रोजगार को बाहरी लोग छीन रहे हैं तथा कश्मीर और उत्तर-पूर्व इसके उदाहरण हैं।
गत वर्षों में हमारे नेताओं ने क्षेत्रवाद को बढ़ावा दिया है। उन्होंने क्षेत्रवाद को राष्ट्रीय एकता से भी अधिक महत्व दिया। आदर्श स्थति यह है कि प्रत्येक भारतीय को देश के किसी भी हिस्से में रहने का अधिकार है और वह वहां अपनी आजीविका अर्जित कर सकता है। हम ऐसे भारत की कल्पना करते हैं जो समानता में विश्वास करे तथा जो सभी वर्गों, जातियों और समुदायों को समान अवसर दे। हमें इस बात को ध्यान में रखना पडेगा कि भारत राज्यों का संघ है और इस बाहरी मुद्दे का निराकरण किया जाना चाहिए। अन्यथा क्षेत्रवाद देश को बांट देगा। किसी समुदाय या क्षेत्रीय लोगों के विरुद्ध हिंसा के मामलों से कडाई से निपटा जाना चाहिए। देश में एक कठोर रंगभेद विरोधी कानून होना चाहिए और हर तरह के भेदभाव, हमलों, धमकियों आदि की निंदा की जानी चाहिए। कानून मंत्रालय को अपने घरों से दूर रह रहे क्षेत्रीय अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हो रही हिंसा के विरुद्ध कठोर कानून बनाना चाहिए। क्षेत्रीय असहिष्णुता को बिल्कुल नहीं सहा जाना चाहिए और इस बारे में स्पष्ट संदेश दिया जाना चाहिए कि हमें गोरा, काला, हिन्दू, मुस्लिम, मद्रासी, पंजाबी आदि के भय से ऊपर उठना होगा। हमें बॉलीवुड के इस गाने को गुनगुनाना होगा कि: हम बिहारी हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं। पूनम आई कौशिश
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