लोकसभा चुनाव के ठीक पहले नरेंद्र मोदी सरकार ने बड़ा राजनीतिक दांव खेलते हुए सामान्य अथवा अनारक्षित वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को सरकारी नौकरी एवं शिक्षा में 10 प्रतिशत आरक्षण देने का संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा से पारित करा लिया है। इस ऐतिहासिक फैसले को राज्यसभा और फिर 22 राज्यों से मंजूरी मिल जाती है तो सवर्णों के अलावा मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी धर्मावलंबियों को भी इसका लाभ मिलेगा। फिलहाल देश में 49.5 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा है, जो अब बढ़कर 59.5 फीसदी हो जाएगी। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की हुई है। बावजूद कई राज्यों में 65 फीसदी से भी ज्यादा आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है। तमिलनाडू इसका उदाहरण है। ऐसा माना जा रहा है कि सरकार ने यह चाल एससी-एसटी एक्ट में संशोधन कर सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला पलटा था, उससे नाराज हुए सवर्णों को लुभाने की दृश्टि से चली है। इस नाराजगी के चलते सवर्ण सपाक्स पार्टी का गठन कर विधानसभा चुनावों में भाजपा के प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश आए थे। नतीजतन भाजपा को मध्य-प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था।
इस आरक्षण से लाभ उन लोगों को मिलेगा, जिनकी वार्षिक आय 8 लाख रुपए या इससे कम है, पांच एकड़ या उससे कम खेती की जमीन है। 1000 वर्गफुट या इससे कम में घर है। कस्बों में 200 वर्ग गज या उससे कम भूमि में यह घर होना चाहिए। अधिसूचित नगरपालिका क्षेत्र में घर का आकार 100 गज के भीतर होना चाहिए। जाहिर है, इस आरक्षण का लाभ वे सरकारी कर्मचारी, लघु एवं मझौले व्यापारी व किसान उठाएंगे, जो आमदनी के लिहाज से मध्यवर्गीय दायरे में आते हैं, क्योंकि इतनी आमदनी करने वाले व्यक्ति के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के साथ प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं में सफलता के लिए कोचिंग भी ले रहे होते हैं। जबकि देश में 98 फीसदी परिवारों की मासिक आय 50,000 से नीचे है। 1.8 फीसदी परिवार वालों की मासिक आय 50,000 से लेकर 1 लाख रुपये के बीच है। हाऊस होल्ड सर्वे के अनुसार 0.2 प्रतिशत परिवारों की मासिक आय 1 लाख रुपए से ज्यादा है। स्पष्ट है 98 प्रतिशत परिवारों की आय 8 लाख रुपय सालाना आय अथवा 67000 रुपए मासिक आय से कम है। गोया, इस 10 प्रतिशत आरक्षण के लिए 98 प्रतिशत लोग मारामारी करेंगे। वास्तव में यदि सरकार आर्थिक रूप से कमजोर अनारक्षित लोगों को लाभ देना चाहती है तो वार्षिक आमदनी की सीमा 3 लाख रुपए होनी चाहिए। फिलहाल आरक्षण का लाभ 7.5 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति, 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 27 प्रतिशत पिछड़े वर्ग के जाति समुदाय ले रहे हैं। अब यह लाभ बढ़कर 59.5 प्रतिशत हो जाएगा। इसीलिए कहा जा रहा है कि न्याय की चौखट पर इस सुविधा का खरा उतरना मुश्किल है ? क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने यह सीमा 50 प्रतिशत रखी हुई है।
राजनीतिक दल और नेता भले ही आरक्षण का खेल खेलकर वोट की राजनीति के तहत जातीय समुदायों को बरगलाते रहें, लेकिन हकीकत यह है कि आरक्षण भारतीय मानसिकता को झकझोरने के साथ जातीय और धर्म समुदायों में बांटने और उन्हें मजबूती देने का काम कर रहा है। बावजूद यह सही है कि एक समय आरक्षण की व्यवस्था हमारी सामाजिक जरूरत थी, लेकिन हमें इस परिप्रेक्ष्य में सोचना होगा कि आरक्षण बैसाखी है, पैर नहीं ? याद रहे यदि विकलांगता ठीक होने लगती है तो चिकित्सक बैसाखी का उपयोग बंद करने की सलाह देते हैं और बैसाखी का उपयोगकर्ता भी यही चाहता है। किंतु राजनैतिक महत्वाकांक्षा है कि आरक्षण की बैसाखी से मुक्ति नहीं चाहती ? इसलिए आरक्षण भारतीय समाज में उत्तरोत्तर मजबूत हुआ है। 1882 में नौकरियों में आरक्षण देने की शुरूआत हुई। तब ज्योतिबा फुले ने हंटर आयोग के समक्ष ज्ञापन देकर मांग की थी कि सरकारी नौकरियों में कमजोर वर्गों को संज्ञा के अनुपात में आरक्षण मिले। 1902 में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी ने आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को नौकरी में 50 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान किया था। 1932 में पुणे समझौते के तहत 148 सीटें दवे-कुचले लोगों और 18 फीसदी पद केंद्रीय कानून बनाने वाली सभा में आरक्षित किए गए। 1937 में दलित समाज के लोगों को भी केंद्रीय कानून के दायरे में लाया गया। इसी समय ‘अनुसूचित जाति’ शब्द-युग्म पहली बार सृजित कर प्रयोग में लाया गया। 1942 में भीमराव आंबेडकर ने नौकरी और शिक्षा में दलितों को आरक्षण की मांग की, जिसे फिरंगी हुकूमत ने बिना किसी हील-हुज्जत के मान लिया। आजादी के बाद 1950 में अनुसूचित जाति और जनजाति के उत्थान, कल्याण एवं उनकी सामाजिक प्रतिष्ठता बढ़ाने के लिए 7.5 और 15 फीसदी आरक्षण का प्रावधान 10 साल के लिए किया गया।
दस साल बाद इस आरक्षण को खत्म करने की बजाय इसे जीवनदान दिया जाता रहा है। फलत: पिछड़ी जातियां भी आरक्षण की मांग करने लग गई। नतीजतन 1953 में पिछड़ी जातियों की पहचान के लिए आयोग का गठन किया गया। 1978 में मंडल आयोग ने पिछड़ी जातियों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की मांग की। 1989 में अपनी कुर्सी बचाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने इस आरक्षण को मंजूरी दे दी। इसके बाद 1995 में संविधान में 77 वां संशोधन कर पदोन्नति में भी आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया। यही नहीं बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने तो अपने कार्यकाल में 11 नबंवर 1978 को बिहार के गरीब स्वर्णों के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की थी। साथ ही महिलाओं के लिए 3 प्रतिशत और पिछड़ों के लिए भी 20 प्रतिशत के आरक्षण का प्रावधान कर लिया था। इस आरक्षण में सभी जाति की महिलाएं शामिल थीं। लेकिन जब लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने 1990 में जातिगत भेदभाव बरतते हुए गरीब सवर्ण महिलाओं को मिलने वाले तीन प्रतिशत आरक्षणों को खत्म कर दिया था। वैसे भी आरक्षण की लक्ष्मण रेखा का जो संवैधानिक स्वरूप है,उसमें आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से ऊपर नहीं ले जाया सकता ? बावजूद यदि किसी समुदाय को आरक्षण मिल भी जाता है तो यह वंचितों और जरूरतमंदों की हकमारी है। आरक्षण के दायरे में नई जातियों को शामिल करने की भी सीमाएं सुनिश्चित हैं। कई संवैधानिक अड़चनें हैं।
किस जाति को पिछड़े वर्ग में शामिल किया जाए,किसे अनुसूचित जाति में और किसे अनुसूचित जनजाति में,संविधान में इसकी परिभाषित कसौटियां हैं। इन कसौटियों पर किसी जाति विशेष की जब आर्थिक व सामाजिक रूप से दरिद्रता पेश आती है, तब कहीं उस जाति के लिए आरक्षण की खिड़की खुलने की संभावना बनती है। इस लिहाज से अनारक्षितों को दिए आरक्षण को अभी परीक्षा से गुजरना है ?आरक्षण का अतिवाद अब हमारे राजनीतिकों में वैचारिक पिछड़ापन बढ़ाने का काम कर रहा है। नतीजतन रोजगार व उत्पाद के नए अवसर पैदा करने की बजाय, हमारे नेता आरक्षण के टोटके तलाश रहे हैं। यदि सत्तारूढ़ दल रोजगार के अवसर उपलब्ध नौकरियों में ही तलाशने की शुरूआत करें, तो शायद बेरोजगारी दूर करने के कारगर परिणाम निकलें ? इस नजरिए से तत्काल नौकरी पेशाओं की उम्र घटाई जाए, सेवानिवृतों के सेवा विस्तार और प्रतिनियुक्तियों पर प्रतिबंध लगे ? वैसे भी सरकारी दफ्तरों में कंप्युटर व इंटरनेट तकनीक का प्रयोग जरूरी हो जाने से ज्यादातर उम्रदराज कर्मचारी अपनी योग्यता व कार्यक्षमता खो बैठे हैं।
जिस किसी व्यक्ति को एक मर्तबा आरक्षण का लाभ मिल चुका है, उसकी संतान को इस सुविधा से वंचित किया जाए ? क्योंकि एक बार आरक्षण का लाभ मिल जाने के बाद,जब परिवार आर्थिक रूप से संपन्न हो चुका होता है तो उसे खुली प्रतियोगिता की चुनौती मंजूर करनी चाहिए ? जिससे उसी की जाति के अन्य युवाओं को आरक्षण का लाभ मिल सके। इससे नागरिक समाज में सामाजिक समरसता का निर्माण होगा, नतीजतन आर्थिक बद्हाली के चलते जो शिक्षित बेरोजगार कुंठित हो रहे हैं, वे कुंठा मुक्त होंगे। जातीय समुदायों को यदि हम आरक्षण के बहाने संजीवनी देते रहे तो न तो जातीय चक्र टूटने वाला है और न ही किसी एक जाति समुदाय का समग्र उत्थान होने वाला है। बल्कि इससे जातीय कुचक्र और मजबूत ही होगा।
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।