कुछ रियायतों के साथ लॉकडाउन को अगले दो हफ्ते तक बढ़ाना उचित है क्योंकि सरकार महामारी के प्रसार के परिणामों को भली भांति जानती है क्योंकि देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। सोशल डिस्टैंसिंग इसका एकमात्र प्रभावी उपाय है किंतु देश के बड़े शहरों में बड़ी जनसंख्या झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों, रेल पटरियों के किनारों आदि जगहों पर रहती है जहां पर सोशल डिस्टैसिंग का पालन करना एक बड़ी चुनौती है। किंतु इस महामारी के कारण उत्पन्न आर्थिक संकट नाजुक दौर में पहुंच गया है जहां पर सरकार लाखों भूखे लोगों को भोजन उपलब्ध कराने की स्थिति में नहीं है हालांकि हमारा देश खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर है।
इंटरनेशल कमीशन ऑफ़ जूरिस्ट द्वारा हाल में जारी एक दस्तावेज में कहा गया है कि भारत सरकार अपने नागरिकों को खाद्यान्नों की पहुंच सुनिश्चित करने के अपने दायित्व में विफल रही है और कोरोना महामारी संकट के दौरान देश में मुस्लिमों और दलितों के विरुद्ध भेदभाव और हिंसा हुई। ग्लोबल हंगर रिपोर्ट 2019 का हवाला देते हुए इस दस्तावेज में कहा गया है कि अनौपचारिक क्षेत्र के 40 करोड़ से अधिक कामगार कोरोना महामारी के दौरान घोर गरीबी की ओर जाने वाले हैं और भारतीय समाज में भुखमरी व्याप्त होने वाली है।
दिल्ली और राजस्थान में मुस्लिम सब्जी और फल विक्रेताओं को कालोनियों में प्रवेश करने से रोकने और उनके साथ मारपीट की घटनाओं तथा जम्मू, हिमाचल प्रदेश और पंजाब में गुज्जर दूध वालों का बहिष्कार और उनके साथ हिंसा का उल्लेख करते हुए इस दस्तावेज में कहा गया है कि सरकार अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 सहित दांडिक कानूनों को लागू करने में विफल रही है। इन कानूनों में हिंसा और भेदभाव के विरुद्ध प्रावधान हैं और विक्रेताओं को सुरक्षा उपलब्ध न करा पाना भारत के भोजन के अधिकार के अनुरूप नहीं है। इस दस्तावेज में कहा गया है कि देश में अभी भी शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लाखों लोग दयनीय स्थिति में रह रहे हैं और इन्हें भोजन, स्वास्थ्य, स्वच्छता, आश्रय आदि जैसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।
आजकल देश के विभिन्न भागों में प्रवासी श्रमिक और गरीब लोग भूख मिटाने के लिए दिन में दो बार भोजन की पंक्तियों में खड़े दिखायी दे रहे हैं। जिन लोगों के पास पैसा नहीं है उन्हें भय है कि महामारी नहीं किंतु भूख उन्हें मार देगी। पहले ही साढ़े 13 करोड़ लोग खाद्यान्नों की कमी का सामना कर रहे थे किंतु अब लॉकडाउन के बाद 13 करोड़ ऐेसे लोग और जुड़ गए। विश्व खाद्य कार्यक्रम के मुख्य अर्थशास्त्री आरिफ हुसैन के अनुसार देश में इस वर्ष के अंत तक 26.5 करोड़ लोग भुखमरी के कगार पर जा सकते हैं। सच यह है कि दक्षिण अफ्रीका में होन्डूरास से लेकर भारत तक भूख और हताशा के कारण विरोध प्रदर्शन और लूट की घटनाएं हो रही हैं। एक आकलन के अनुसार भारत में 36.8 करोड़ बच्चे स्कूल में मध्याह्न भोजन से वंचित हो गए हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि भुखमरी एक वैश्विक संकट बन गया है किंतु भारत में पिछले वर्ष अगस्त से अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण आर्थिक व्यवस्था में व्यवधान पड़ा है और कई अन्य कारकों से लाखों लोगों के आय के साधन छिन गए हैं। जब भारत में 30-35 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं क्या वे गरिमापूर्ण जीवन जी पाएंगे? समाज में खाई बढ़ती जा रही है जिससे सामाजिक स्थिरता के लिए खतरा पैदा हो गया है। देश की खराब स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण भी आर्थिक संकट पैदा हो रहा है। बुलेट ट्रेन, हवाई अड्डों का आधुनिकीकरण, मंत्रियों और अधिकारियों की विदेश यात्राओं तथा 20 हजार करोड़ रूपए की लागत से बनने वाला सेन्ट्रल विस्टा आदि गलत प्राथमिकताओं से देश में स्वास्थ्य अवसंरचना या लोगों के जीवन में सुधार नहीं होगा। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस नए कोरोना ब्राहमणवाद के चलते दलित आदिवासियों जैसे गरीब वर्गों के साथ सामाजिक दूरी की सदियों पुरानी परंपरा अपनाई जा रही है। मध्यम वर्ग में चिंता है कि भीड़भाड़ भरी गरीब बस्तियों से संक्रमण फैल सकता है साथ ही मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह भी खतरनाक है।
कोरोना वायरस जातीय समाज के लिए भी एक चुनौती है। देश में पिछले कुछ वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर ऊंची रही है किंतु इससे संघर्षरत वर्ग को कोई लाभ नहीं मिला है। सितंबर 2011 में जस्टिस भंडारी ने कहा था कि भूख के कारण एक भी व्यक्ति नहीं मरना चाहिए और आदेश दिया था कि अतिरिक्त खाद्यान्न को 150 निर्धनतम जिलों में बांट दिया जाना चाहिए। गरीबी और भुखमरी की ओर न्यायपालिका का ध्यान भी गया है किंतु जमीनी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। क्या हमारे देश में राजनेता कुछ दिनों तक गरीबों के घर में रहकर भूख, आक्रोश और उनकी वेदना को समझ पाएंगे? क्या वे देश में लगभग दो लाख किसानों की आत्महत्याओं के कारणों को समझने का प्रयास करेंगे जो अपने पीछे कर्ज, गरीबी और दुख छोड़कर चले गए हैं?
प्रवासी श्रमिक पिछले छह सप्ताहों से अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सरकार लगभग दस करोड़ कामगारों को राहत दिलाने में सक्रिय भूमिका नहीं निभा रही है और लॉकडाउन को और बढ़ाने से स्थिति और बदतर हो सकती है। देश में प्रवासी श्रमिकों के बारे में कोई केन्द्रीय रजिस्ट्री नहीं है हालांकि इस बारे में कानून 40 वर्ष पूर्व बनाया जा चुका है। इसके अलावा 6.5 करोड़ अति लघु, लघु और मध्यम उपक्रमों में कार्यरत 11 करोड़ लोगों ने अप्रैल में एक दिन भी कार्य नहीं किया और मार्च तथा मई में भी श्रम दिवसों का नुकसान हुआ है।
भारतीय रिजर्व बैंक के गर्वनर रघुराम राजन ने भी कहा है कि इस संकट के समय सरकार को गरीबों को भोजन और नकदी उपलब्ध कराने के लिए 65 हजार करोड़ रूपए खर्च करने होंगे। सरकार इस मामले में ढुलमुल रवैया नहीं अपना सकती है और उसे आर्थिक रूप से कमजोर तथा गरीब वर्गों पर ध्यान देना होगा। भारत में राहत पैकेज सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 1 प्रतिशत है जबकि जापान में 20 प्रतिशत और अमरीका में 16 प्रतिशत है और हमारा देश इतनी कम राशि से इतने अधिक लोगों की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता है। नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रो. अभिजीत बनर्जी के अनुसार भारतीय रिजर्व बैंक को वित्तीय घाटे की चिंता किए बिना अतिरिक्त नोट छापने चाहिए और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सकल घरेलू उत्पाद की कम से कम 3-4 प्रतिशत राशि उपलब्ध करानी चाहिए। सरकार को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि समय पर उचित कदम उठाने से ही समस्या का समाधान होता है।
धुर्जति मुखर्जी
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