अफगानिस्तान में भूकंप ने भारी तबाही मचाई। वहां मंजर इतना दर्दनाक है कि एक हजार से अधिक लोगों की मौत व ईमारतें, सड़कें तहस-नहस हो गई। इस घटना से देश पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है। इस आपदा ने फिर स्पष्ट कर दिया है कि प्रकृति का विकराल रूप कितना खतरनाक है। मनुष्य ताकतवार जरूर है लेकिन प्रकृति के सामने असहाय है। भले ही भूकंप के कारण संबंधी वैज्ञानिकों का विचार एक नहीं फिर भी प्रकृति से मनुष्य की छेड़छाड़ को प्राकृतिक खतरों का कारण अवश्य माना जा रहा है।
प्रकृति बेहद सहज, अनुशासित, व वरदानों से भरपूर व मनुष्य के अस्तित्व का आधार है। लेकिन मनुष्य अपने विवेक के अहंकार व अपने लोभ लालच में प्रकृति से अपने रिश्ते संतुलित बनाए रखने में बुरी तरह से भटक गया है। विकास व विनाश के बीच अंतर को ढूंढने व इसे कायम रखने के लिए प्रयास नहीं हो रहे। विकसित देशों के साथ-साथ विकासशील देश भी प्रकृति का जमकर दोहन कर रहे हैं। छोटे पहाड़ों को ट्रालियों-ट्रकों में भरकर मैदानी क्षेत्र बढ़ाते जा रहे हैं। बड़े-बड़े राजनीतिक विद्धवान इस गैर कानूनी कार्य के लिए जेलों में बंद हैं। सुविधाएं आवश्यक हैं, लेकिन सुविधाओं के लिए प्रकृति को दांव पर नहीं लगाया जा सकता।
मनुष्य के अतीत, इतिहास व परंपराओं का अपना महत्व है। हद से ज्यादा सुविधाओं में फंसकर मनुष्य खुद को कमजोर बना रहा है। मनुष्य के जीवन में सहज, संतुष्टि, चिंताएं गायब हो रही हैं व जल्दबाजी में ज्यादा प्राप्ति को ही विकास समझा जा रहा है। अंधाधुंध विकास के लिए प्रकृति की कुर्बानी नहीं दी जा सकती। वन, पहाड़, नदियां, समुन्द्र, जानवर, पक्षी व कीट-पतंगे इत्यादि प्रकृति के आंगन की रौणक हैं। माना कि प्राकृतिक आपदाएं आधुनिकता की शुरूआत में भी आती थीं, लेकिन वैज्ञानिक युग में ये निरंतर बढ़ रही हैं।
वास्तव में मनुष्य विकास की पहचान करने में असफल हो रहा है। विकास हो लेकिन प्रकृति का विनाश किए बिना, विकास केवल भौतिक ही नहीं मनुष्य का मानसिक व आत्मिक विकास भी आवश्यक है। लेकिन यह वस्तुएं हमारे शिक्षण ढांचें का हिस्सा नहीं हैं। अभी तक पदार्थवादी विकास के इर्द-गिर्द सब कुछ केंद्रित है। रूहानियत का अनुसरण करने से ही मनुष्य वास्तव में मनुष्य बनेगा। सरकार को मनुष्य के अपने रूहानी विकास को बढ़ाने पर भी विचार करना चाहिए जो आपदाओं से न केवल बचाता है बल्कि सुरक्षित रास्ता भी सुझाता है।
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