झारखंड मुक्ति मोर्चा फिर बड़ी पार्टी (Regionalism effect)
झारखंड के विधानसभा चुनावी परिणामों में एक बार फिर क्षेत्रवाद (Regionalism effect) का प्रभाव दिखा। यहां 10 वर्षों के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा फिर बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आया है। गत दिवस चुनावी परिणामों के बाद डेढ़ माह की कशमकश में शिवसेना महाराष्ट्र में सत्ता संभालने में सफल हो गई थी। इधर झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी फिर वापिसी कर रही है। महाराष्ट्र व झारखंड दोनों राज्यों में राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेसी का ग्राफ भी बढ़ा है लेकिन क्षेत्रीय पार्टियां ज्यादा प्रभावशाली दिख रही हैं। भले ही भाजपा का ग्राफ गिरा है लेकिन कांग्रेस की सीटों का विस्तार होने के बावजूद उन्हें अभी पकड़ बनाने के लिए कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता है। झारखंड के लोगों ने भाजपा के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा व कांग्रेस को अवसर दिया है।
ताजा परिणामों से यह स्पष्ट है कि राज्यों के मुद्दों को राष्ट्रीय पार्टियों ने अनदेखा किया है, जिस कारण लोगों ने एक बार फिर क्षेत्रीय पार्टियों या छोटी पार्टियों में दिलचस्पी दिखाई है। झारखंड गठबंधन की सिद्धांतहीन राजनीति की बड़ी प्रयोगशाला रह चुका है जहां एक दूसरे की कट्टर विरोधी पार्टियों ने समय-समय पर सरकार के लिए हाथ मिलाने से परहेज नहीं किया। राज्य के गठन के 20 वर्षों में 10 मुख्यमंत्री बने और तीन बार राष्ट्रपति शासन भी लागू हुआ। एक बार शिबू सोरेन केवल दस दिनों के लिए मुख्यमंत्री बन सके। भाजपा और कांग्रेस झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ मिलकर भी सरकार बना चुकी है। शिबू सोरेन के मुख्यमंत्री रहते उपचुनाव हार जाने की घटना भी इस राज्य की राजनीति में इतिहास बन गई है। मधु कोड़ा का बिना किसी पार्टी के मुख्यमंत्री बनना भी एक अलग घटना थी। जोड़-तोड़ और राजनीतिक अस्थिरता ने राज्य के विकास को बुरी तरह प्रभावित किया है।
भाजपा के रघुवर दास ही एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने पांच साल तक सरकार चलाई। अब गठबंधन सरकार का इतना फायदा जरूर है कि कोई भी पार्टी मनमानी नहीं कर सकेगी और गठबंधन में सहयोगी पार्टी का दबाव भी बना रहेगा लेकिन इस दौरान सरकार द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यों की रफ्तार बरकरार रहनी चाहिए।
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