स्ांयुक्त राष्ट्र में सुधार जरूरी

Reform needed in the country

20वी शताब्दी में हुए दो विध्वंसक विश्वयुद्धों से अपार जन व धन की हानि ने सम्पूर्ण मानवजाति का अस्तित्व खतरे में डाल दिया। भविश्य में इससे भी अधिक विनाशकारी स्थिति से बचने के लिए लोग विश्व शान्ति के प्रति सजग हो गए। परिणामस्वरूप एक ऐसी अंतराष्टÑीय संस्था की स्थापना की पहल शुरू हुई जिससे उनके पारस्परिक विवादों का शान्तिपूर्ण ढंग से हल निकाला जा सके। वैसे इस दिशा में पहल 1920 ई0 में पहले विश्व युद्ध के बाद राष्टÑीय संघ के रूप में हो चुकी थी लेकिन संगठित विश्व समुदाय स्थापित करने के लिए पहला प्रयास असफल रहा। इसलिए दूसरे विश्वयुद्ध के भीशण परिणामों को देखते हुए यु़़द्ध के दौरान ही अधिकांश महाशक्तियों ने इस दिशा में अपने प्रयास आरम्भ कर दिये और उनके अथक प्रयासों के फलस्वरूप 25 अप्रैल, 1945 को लॉर्ड हैलीफैक्स की अध्यक्षता में सैनफ्रांसिस्को सम्मेलन शुरू हुआ। यह सम्मेलन 26 जून, 1945 तक चला और इसी दिन संयुक्त राष्टÑ के चार्टर पर 51 राष्टÑो ने हस्ताक्षर किए तथा अपेक्षित राष्टÑो के अनुसमर्थन के बाद 24 अक्टूबर, 1945 को विधिवत् संयुक्त राष्टÑ की स्थापना की गई। संयुक्त राष्टÑ का पहला तथा सबसे प्रमुख उद्देश्य अंतराष्टÑीय शान्ति को बनाए रखना है। इसके चार्टर की प्रस्तावना में आने वाले पीड़ियों को युद्ध के प्रकोप से बचाने का संकल्प चार्टर निमार्ताओं ने लिया था। इसलिए स्वाभाविक ही था कि वे विश्व शान्ति की स्थापना को सर्वप्रमुख उद्देश्य घोशित करते। चार्टर में अंतराष्टÑीय शान्ति तथा सुरक्षा को बनाए रखने तथा इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शान्ति के खतरे दूर करने तथा आक्रमण व शान्ति के अतिक्रमण के कार्यों के विरूद्ध प्रभावशाली सामूहिक कार्यवाही करने और अंतराष्टÑीय विवादों तथा परिस्थितियों को शान्तिपूर्ण ढंग से तथा न्याय के सिद्धांतों एवं अंतराष्टÑीय विधि के अनुसार हल करने के लिए कहा गया है। संयुक्त राष्टÑ का ध्येय ही अंतराष्टÑीय राजनीति में आपसी टकराव को रोकना एवं उनके मध्य आपसी सौहार्द की भावना को जन्म देना है। इसलिए संयुक्त राष्टÑ अपने जन्म से ही निरंतर विश्व में शान्ति स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। लेकिन इस उद्देश्य के निश्पादन में वह पूरी तरह सफल होता हुआ नहीं नजर आ रहा है। ईराक पर अमेरिका व ब्रिटेन के संयुक्त हमले तथा विभिन्न देशों के आंतरिक एवं बाह्य मामलों में अमेरिका की दखलअंदाजी ने इसके शान्ति प्रयासों को भारी धक्का पहुंचाया है। इस कार्यवाही के समय संयुक्त राष्टÑ मुखदर्शक बनकर सब कुछ देखता रह गया। वर्तमान स्थिति यह है कि अमेरिका का सुरक्षा परिशद् तथा महासभा पर पूर्ण वर्चस्व स्थापित हो गया है। उसकी शक्ति को चुनौती देना किसी भी राष्टÑ के लिए संभव प्रतीत नहीं होता। अब रूस भी इतना शक्तिशाली नहीं रहा कि वह अमेरिका का विरोध कर सके। बदली हुई अंतराष्टÑीय परिस्थितियों में चीन भी अमेरिका से मित्रता स्थापित करने के प्रयासो में संलग्न है। ब्रिटेन तो सदैव से ही अमेरिका का साथ देता आया है। फ्रांस भी सामान्यतया अमेरिका के पक्ष में ही होता है लेकिन मानवता की सुरक्षा के लिए अब भी संयुक्त राष्टÑ ही आशा की एक किरण है। संयुक्त राष्टÑ की रीढ़ मानी जाने वाली सुरक्षा परिशद् ने वर्तमान में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस तथा चीन सहित 5 स्थाई सदस्य हैं जिन्हें संयुक्त राष्टÑ के चार्टर के अनुच्छेद-27 द्वारा वीटो की शक्ति प्राप्त है। महाशक्तियों को वीटो का अधिकार वास्तव में इस विश्वास के साथ प्रदान किया गया था कि ये अंतराष्ट्रीय शान्ति को बनाये रखने तथा दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध के प्रभाव से बचाने में आपस में उसी प्रकार से सहयोग करेंगे जैसा की उन्होने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान किया था लेकिन संयुक्त राष्टÑ की स्थापना के तुरंत बाद ही महाशक्तियों के बीच शीत युद्ध ने इस अवधारणा को गलत साबित किया। इसी के साथ ही सुरक्षा परिशद् द्वारा महत्वपूर्ण प्रश्नों पर निर्णय के लिए स्थाई सदस्यों के सकारात्मक प्रावधान ने एक विकट समस्या उत्पन्न कर दी। क्योंकि महाशक्तियां अपने वीटो का प्रयोग करके सुरक्षा परिशद् को निर्णय लेने में असक्षम बनाने लगी। नतीजतन् सुरक्षा परिशद् पंगु बन गई।
सुरक्षा परिषद् का गठन वर्तमान वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप नहीं है। सुरक्षा परिषद् का वर्तमान स्वरूप द्वितीय विश्वयुद्ध की देन है जबकि आज अंतराष्ट्रीय जगत से साम्यवाद् के पतन ने अमेरिका को संयुक्त राष्टÑ का एकाधिकारी बना दिया है। संयुक्त राष्टÑ के प्रति लोगों की बढ़ती आस्था को देखकर यह कहा जा सकता है कि सुरक्षा परिशद् के स्वरूप को लोकतंत्रात्मक कर दिया जाय। अब जबकि संयुक्त राष्टÑ के सदस्यों की संख्या 51 से बढ़कर 193 हो गई है सुरक्षा परिशद् की संरचना में परिवर्तन अवश्यमभावी प्रतीत होता है। क्योंकि आज संयुक्त राष्टÑ के कार्यों एवं भूमिका में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो चुका है इसलिए सुरक्षा परिशद् का वर्तमान आकार संयुक्त राष्टÑ के व्यापक विस्तार व कार्यों की दृष्टि से असंगत प्रतीत होता है। वर्तमान में अनेक राष्टÑ जो भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा प्रौद्योगिकी की दृष्टि से सशक्त हैं वह सुरक्षा परिशद् की स्थाई सदस्यता के प्रबल दावेदार हैं। दूसरे विश्वयुद्ध में भारी नरसंहार ने संयुक्त राष्टÑ को मानवीय मूल्यों व शान्ति का प्रहरी बना दिया। वर्तमान में विश्व के 193 सदस्य राष्टÑोें को अंतराष्टÑीय चिंताओं व मामलों को सम्भालने का मौका मिला है। फिर भी संयुक्त राष्टÑ अपने उद्देश्यों को पूरी तरह प्राप्त करने में असफल साबित होता दिख रहा है। विश्व शान्ति की स्थापना और राष्टÑोें के मध्य आपसी टकराव को पूरी तरह रोक पाना संभव नहीं प्रतीत हो रहा है। वर्तमान समय में परमाणु शस्त्रों का उत्पादन इतने बड़े पैमाने पर हो रहा है कि तीसरे विश्वयुद्ध की संभावना निकट भविश्य में दिखाई पड़ने लगी है। तीसरे विश्वयुद्ध में निश्चित रूप से परमाणु शस्त्रों का प्रयोग होगा और सम्पूर्ण मानव जाति विनाश के गर्त में डूब जाएगी। इस भयावह स्थिति से बचने के लिए संयुक्त राष्टÑ को निशस्त्रीकरण के प्रति कठोर कदम उठाने चाहिए।