डब्ल्यूएचओ पर संदेह का कारण

Reason to doubt WHO
दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं पर निगरानी रखने वाली वैश्विक संस्था विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठाये जा रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार इसकी आलोचना कर रहे हैं। वह इसकी कार्यशैली से इस कदर खफा हैं, कि उन्होंने डब्ल्यूएचओ को दिए जाने वाले अमेरिकी फंड को रोक दिया है। अमेरिका डब्ल्यूएचओ को हर साल 400 करोड़ डॉलर का अंशदान देता है, जो उसके कुल बजट का 15 फीसद है। ट्रंप का कहना है कि डब्ल्यूएचओ ने अपनी वैश्विक जिम्मेदारी का पूरी तरह से निर्वहन नहीें किया है। उनका आरोप है कि डब्ल्यूएचओ न केवल अमेरिकी लोगों के लिए नाकाम रहा है, बल्कि कोविड-19 से निपटने में वैश्विक मोर्चें पर भी असफल रहा है।
पिछले सात दशक में डब्ल्यूएचओ दुनिया में फैलने वाली अनेक असाध्य बीमारियों को रोकने में कामयाब हुआ है। इसकी महत्वपूर्ण सलाह और सहयोग के कारण मानवजाति उन जानलेवा बीमारियों से मुक्ति पा सकी है, जिसकी जद में आकर लाखों प्राणियों को असमय मृत्यु का शिकार होना पड़ा। लेकिन कोविड-19 वायरस ने जिस तरह से पूरे विश्व को अपनी चपेट में लिया है, उसे देखते हुए यह प्रश्न गलत नहीं है कि प्रर्याप्त आर्थिक और तकनीकी संसाधनों के बावजूद डब्ल्यूएचओ कोरोना वायरस के गंभीर संक्रमण को लेकर दुनिया को समय रहते सचेत क्यों नहीं कर सका। क्या डब्ल्यूएचओ और उसके मुखिया ने किसी देश विशेष के प्रति प्रेम से अभिभूत होकर वास्तविक तथ्यों को छिपाने का अपराध किया है। सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या डब्ल्यूएचओ ने चीन से उन सभी तथ्यों और आंकड़ों की जानकारी हासिल करने का प्रयास किया जिससे वायरस के खतरनाक फैलाव को लेकर उसे कुछ अनुमान हो पाता।
एक सवाल यह भी है कि वायरस के फैलाव की आशंका को देखते हुए डब्ल्यूएचओ ने जो कदम उठाये क्या उन्हें प्रर्याप्त कहा जाना चाहिए। अमेरिकी अंशदान को रोकने के ट्रंप के निर्णय के बाद निश्चिय ही डब्ल्यूएचओ के सामने एक तरह का वित्तीय संकट उत्पन्न हो जाएगा। ऐसी स्थिति में दुनिया के स्वास्थ्य की चिंता करने वाला यूएनओ का यह सहयोगी निकाय कहीं खुद पंगु हो गया तो मानविकी के सामने उत्पन्न इस चुनौती से कौन निबटेगा। निसंदेह अमेरिकी मदद के बिना एक बारगी तो डब्ल्यूएचओ और उसके प्रमुख के माथे पर चिंता की लकीरें खिंची ही है। अमेरिकी वित्तीय मदद के बिना डब्ल्यूएचओ अपनी भावी कार्ययोजनाओं और शोध कार्यों को कैसे जारी रख सकेगा, यह भी एक बड़ा सवाल इस समय उपस्थित हो रहा है।
दरअसल अमेरिका के डब्ल्यूएचओ से खफा होने की सबसे बड़ी वजह संगठन के महानिदेशक टेंडोस गेब्रेयसस का वो बयान है, जिसमें उन्होंने चीन की कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए की गई तैयारियों को लेकर वहां की सरकार की तारीफों के पुल बांधे थे। इसके बाद ट्रंप ने डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए कहा कि कोरोना मामले में डब्ल्यूएचओ केवल चीन केन्द्रीत होकर रह गया हैं। ट्रंप का कहना है कि जब अमेरिका ने अपने यहां हवाई यात्राओं पर रोक लगाई थी तब भी गेब्रेयसस ने इस कदम की निंदा की थी। यह सही भी है। महानिदेशक ने 23 जनवरी को जेनेवा में कोरोना को लेकर आयोजित आपात्त बैठक में यात्रा और व्यापार प्रतिबंध की सिफारिश नहीं की थी, केवल एयरपोर्टस पर यात्रियों की स्क्रीनिंग किए जाने के बारे में ही कहा गया था, जबकि उस वक्त तक चीन में 600 मामले सामने आ चुके थे और 17 लोगों की मौत हो चुकी थी ।
बेशक ट्रंप अपने बड़बोलेपन और झूठे बयानों के लिए बदनाम नेता के तौर पर जाने जाते हैं। लेकिन हाल-फिलहाल डब्ल्यूएचओ निदेशक गेब्रेयसस ने जिस तरह की कार्यशेली का परिचय दिया है, वह कहीं न कहीं उनके चीन समर्थक रवैये को ही प्रकट करता दिखाई दे रहा है। ट्रंप का नाराज होना स्वाभाविक ही है। ग्रेब्रेयसस ने पिछले दो माह में जिन तौर-तरीकों से इस वैश्विक संगठन का संचालन किया है, उन्हें किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य मसलों और अपने आपदा नियंत्रण अनुभवों के लिए विश्व स्तर पर पहचान रखने वाले ग्रेब्रेयसस उसी वक्त सतर्क क्यों नहीं हो गए थे जब 7 जनवरी को चीन ने कोरोना वायरस के फैलने की सूचना उन्हें दी थी। खबर तो यह भी है कि इससे पहले भी चीन ने डब्ल्यूएचओ को सूचना दी थी कि वुहान शहर में पिछले कुछ दिनों से लगातार लोग मर रहे हैं, इन संदिग्ध मौतों की वजह उसे पता नहीं लग पा रही हैं। ऐसे में डब्ल्यूएचओ और उसके काबिल महानिदेशक का क्या यह दायित्व नहीं बनता था कि वह वुहान में होने वाली मौतों का कारण जानने का प्रयास करते।
लेकिन, गेब्रेयसस पूरे मामले में न केवल चुप्पी साधे रहे बल्कि दुनिया को अपने ट्वीट के जरिये यह बताते रहे कि चीन द्वारा प्रारंभिक जांच में इस वायरस के मानव से मानव में फैलने के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले हैं। ग्रेब्रेयसस की कार्यशैली पर संदेह तब और अधिक गहरा जाता है, जब उन्होंने कोरोना संकट को स्वास्थ्य इमरजेंसी घोषित करने में भी कोताही बरती। इसे चीन का प्रभाव कहें या व्यक्तिश: असमजंस की ग्रेब्रेयसस ने जनवरी के अंत में स्वास्थ्य इमजेंसी की घोषणा की। आलोचकों के अनुसार ग्रेब्रेयसस को सप्ताह भर पहले यह कदम उठा लेना चाहिए था। अब संगठन के भीतर भी यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि क्या ग्रेब्रेयसस उस वक्त चीन के प्रभाव में काम कर रहे थे जिसने उनके निदेशक पद पर चुने जाने में मदद की थी।
डब्ल्यूएचओ ने जनवरी में ही वायरस से संबंधित सारी जानकारी दे दी थी, लेकिन सरकार फिर भी सही कदम उठाने से चूक गई। इसका नतीजा यह हुआ कि आज अमेरिका मे हजारों लोग इस वायरस के शिकार हो चुके है, और स्थिति अभी भी भयावह बनी हुई है। निसंदेह कोरोना वायरस के खतरनाक फैलावे को रोक पाने में डब्ल्यूएचओ विफल रहा है। चीन की गलतियों पर परदा डाले रखने की मजबूरी के कारण समय रहते उसने दुनिया को चेतावनी जारी नहीं की जिसकी वजह से संक्रमण अनिंयत्रित होकर पूरी दुनिया में फैल गया। लेकिन ट्रंप को भी इस बात को समझना चाहिए कि यह वक्त डब्ल्यूएचओ को दंडित करने का नहीं हैं। अभी सबसे जरूरी है कोरोना संकट से पार पाना। फिर किसी एक व्यक्ति विशेष की गलती के कारण पूरे संगठन की सेवाओं को ही दांव पर लगा देना भी उचित नहीं है। क्या ट्रंप के इस कदम से कोरोना से पार पाने की कोशिशें बाधित होने का खतरा पैदा नहीं हो जाएगा । हाल-फिलहाल आवश्यकता इस बात की है कि वैश्विक संकट के समय दुनिया को नेतृत्व देने वाले संयुक्त राज्य को एक बार फिर मानवता के समक्ष उपस्थित संकट से पार पाने में मदद करनी चाहिए, तभी महाशक्ति के रूप में उसका रूतबा बना रह सकता है।
एन.के.सोमानी
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