तेल कीमतों में वृद्धि के साथ महंगाई लगातार बढ़ रही है। इन परिस्थितियों में कृषि क्षेत्र के सबसे अधिक प्रभावित होने का अनुमान है। रबी की फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय हो चुका है, भले ही केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य अधीन सभी फसलों के दामों में वृद्धि की घोषणा की है, किंतु इस घोषणा के बाद जिस प्रकार महंगाई बढ़ रही है, उसे वर्तमान कृषि लागत खर्चों में नहीं जोड़ा गया। हर साल केंद्र सरकार द्वारा फसलों की बिजाई से दो माह पूर्व कृषि लागत तय करने के वक्त मौजूदा खर्चों को मौजूदा रेटों को आधार बनाया जाता है, लेकिन फसल के पककर तैयार होने तक खर्चें बढ़ जाते हैं जिन्हें बाद में लागत खर्च में नहीं जोड़ा जाता।
कृषि में फसलों की बिजाई से लेकर कटाई और मंडी में फसल ढुलाई के लिए डीजल की खूब खपत होती है। डीजल का रेट शतक को पार कर गया है। ऐसे में सरकार द्वारा घोषित फसलों का रेट नाकाफी है, जिससे किसानों पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा। भाव तय करने की व्यवस्था को बदलने की आवश्यकता है। वैज्ञानिक युग में फसलों के भाव को डिजीटल करना समय की आवश्यकता है। छह माह पूर्व घोषित फसलों के रेटों में समय के अनुसार परिवर्तन करने का प्रबंध हो। यह भी आवश्यक है कि बारिश-आंधी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के नुक्सान के साथ मंडी में होने वाले नुक्सान को भी जोड़ा जाए। अभी तक खेतों में खड़ी फसल के नुक्सान का ही मुआवजा दिया जाता है। ऐसा कई बार हुआ है कि जब प्रशासनिक अव्यवस्थाओं के कारण मंडियों में जलभराव की समस्या बनी है और लाखों टन फसल बर्बाद हो गई।
मंडियों में पूरे प्रबंध करने की जिम्मेवारी सरकार की है। किसान की जिम्मेवारी फसल की बिजाई कर, फिर तैयार कर मंडी में लाना है। मंडियों में व्यवस्था को लेकर प्रशासन की लापरवाही का बोझ किसानों पर नहीं डाला जाना चाहिए। यह आवश्यक है कि कम-से-कम सरकार तैयार हुई फसल को तो संभालने की जिम्मेदारी तो ले, फसलों का मंडियों में बर्बाद होना कृषि क्षेत्र का अपमान है। यदि देश में सड़कों का जाल बिछाया जा सकता है तो अति आधुनिक मंडियों का प्रबंध इससे पहले हो जाना चाहिए। अनाज के भंडारण के लिए निजी कंपनियों ने बड़ा नेटवर्क तो बना लिया, साथ ही सरकार को मंडियों के विकास व आधुनिकीकरण के बारे में भी सोचना होगा।
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