भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार के बीच स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा विवाद फिलहाल सुलझ गया है। इसे अच्छा संकेत इसलिए माना जाना चाहिए कि रिजर्व बैंक वह सर्वोच्च निकाय है,जो देश के बैंकिंग तंत्र को नियंत्रित करता है। ऐसे में अगर किन्हीं मुद्दों पर सरकार के साथ शीर्ष बैंक का टकराव होता तो बाजार, उद्योग जगत या संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता था। व्यापक तौर पर देखा जाए तो सरकार जहाँ अर्थव्यवस्था,नकदी और ऋण की कमी को लेकर चितिंत थी,वहीं आरबीआई प्रबंधन मानकों को लेकर।
दोनों असहमति एक बड़े संकट में बदल गई थी और कहा जा रहा था कि सरकार आरबीआई की धारा-7 का इस्तेमाल करने जा रही है। इस धारा के तहत वह आरबीआई को अपना निर्णय मानने को बाध्य कर सकती है। यह पहली बार है जब आजाद भारत की किसी सरकार में आरबीआई के खिलाफ सेक्शन -7 लागू करने पर चर्चा हो रही है। सेक्शन -7 लागू होने के बाद बैंक कारोबार से जुड़े फैसले आरबीआई गर्वनर के बजाए रिजर्व बैंक के “बोर्ड आॅफ डायरेक्टर्स लेंगे। यानी सरल शब्दों में कहें तो सेक्शन -7 कहीं न कहीं आरबीआई गवर्नर के अधिकारों को कमजोर करता है।
सेक्शन-7 की चर्चा से विवाद इतना ज्यादा बढ़ गया कि रिजर्व बैंक के एक डिप्टी गवर्नर ने तो सरकारी दखल पर गंभीर नतीजों की बात तक कह डाली। पिछले पखवाड़े इस विवाद को थामने के लिए कुछ प्रयास किए गए लेकिन ऐसी अटकल थी कि आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल इस्तीफा दे सकते हैं। अगर ऐसा होता तो यह देश की नीति निर्माण व्यवस्था के लिए बड़ा झटका होता। आरबीआई के कामकाज और स्वायत्तता में सरकार की ऐसी दखल उस पर शिकंजा कसना ही है,ताकि केंद्रीय बैंक सरकार की इच्छानुरूप ही फैसले करे। इस परिदृश्य में यह बहुत राहत की बात है कि आरबीआई एवं सरकार के बीच तनाव फिलहाल रुका।
मौजूदा विवाद की नींव इस साल फरवरी में तब पड़ी जब रिजर्व बैंक ने एनपीए के मसले पर बैंकों पर कठोरता बरतनी शुरू की। सरकारी बैंक डूबता कर्ज यानी एनपीए की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं। पिछले कुछ सालों में बैंकों ने नियमों को ताक पर रखते हुए जिस तरह अंधाधुंध कर्ज बांटे थे,उसी से एनपीए की समस्या खड़ी हुई थी और इसीलिए अब रिजर्व बैंक ने बैंकों पर सख्ती की थी। ऐसे में कदम उठा कर रिजर्व बैंक ने कुछ गलत नहीं किया था। लेकिन सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच विवाद यहीं तक ही सीमित नहीं रहा। जुलाई में सरकार ने रिजर्व बैंक पर इस बात के लिए दबाव डाला कि वह छोटे और मझोले उद्योगों को कर्ज देने के मामले में ढील दे। बैंकों के डूबते कर्ज की वजह से केंद्रीय बैंक ने व्यवसायिक बैंकों पर इन उद्योगों को कर्ज देने के मामले में सख्ती कर दी थी,इस वजह से अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता दिखा।
लेकिन सवाल है कि अब क्या होगा?आरबीआई बोर्ड ने चार विवादास्पद मसलों पर चर्चा की : आरबीआई का आर्थिक पूँजी ढ़ाचा(ईसीएफ अर्थात इकॉनोमिक कैपिटल फ्रेमवर्क),घाटे और फंसे कर्ज की समस्या से जूझ रहे बैंकों के लिए तात्कालिक सुधारात्मक कदम ढांचा(पीसीए,यानी प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन ),संकटग्रस्त मझोले,छोटे और सूक्ष्म उपक्रमों के लिए ऋण पुनर्गठन की योजना और बैंकों के लिए बेसिक नियामकीय पूँजी ढांचा। केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक के बीच मतभेद की सबसे बड़ी वजह बना आरबीआई के रिजर्व फंड यानी इकॉनोमिक कैपिटल फ्रेमवर्क। आरबीआई से जारी जुलाई, 2017 से जून,2018 के आँकड़ों के मुताबिक यह राशि अभी 9.69 लाख करोड़ रुपए की है। रिजर्व बैंक के बोर्ड में सरकार के प्रतिनिधि के अनुसार रिजर्व बैंक का मुद्रा भंडार बाजार में चलन में मौजूद कुल करेंसी का 12-18.7 फीसदी के बीच होना चाहिए जबकि मौजूदा समय में यह भंडार 27-28 फीसदी है। इस तरह रिजर्व बैंक की तिजोरियों में 3.6 लाख करोड़ की अतिरिक्त रकम पड़ी हुई है।
सरकार चाहती है कि यह रकम रिजर्व बैंक उसे लाभांश के रुप में दे दे,ताकि उसे विकास कार्यों पर खर्च किया जा सके। रिजर्व बैंक के पास आखिर कितना रिजर्व फंड हो,इस बारे में आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघु राम राजन का मानना है कि कम से कम 10 लाख करोड़ रुपया। उनके अनुसार 10 लाख रिजर्व फंड के बाद ही रिजर्व बैंक सरकार को लाभांश के रुप में राशि दे सकती है। रिजर्व बैंक के बोर्ड बैठक में इस मामले पर सहमति बनी कि एक विशेषज्ञ समिति गठित की जाए, जो इस मुद्दे पर फैसला करे। समिति में आरबीआई व वित्त मंत्रालय के अधिकारियों के अलावा बाहर के कुछ विशेषज्ञों को शामिल किया जा सकता है। समिति की सिफारिशों पर अंतिम फैसला आरबीआई गवर्नर ही करेंगे,क्योंकि आरबीआई की तरफ से गठित हर समिति की सिफारिशों पर अंतिम तौर पर फैसला करने या नहीं करने का अधिकार गवर्नर के पास ही होता है।
ब प्रश्न उठता है कि आखिर रिजर्व बैंक के रिजर्व फंड पर अब तक आरबीआई ने किसी भी सरकार को हाथ रखने क्यों नहीं दिया है? इसे समझने के लिए हमें आरबीआई के इस फंड की प्रकृति को समझना होगा। दुनिया के हर बैंक की तरह आरबीआई भी सरकारी प्रतिभूतियों को जारी करने और उनमें निवेश करने का काम करता है। इसके अलावा वह बैंकों की अल्पावधि और दीर्घावधि जरूरतों के लिए ब्याज पर फंड उपलब्ध कराता है। अतिरिक्त फंड को विदेशों में निवेशित करता है। विदेशी मुद्रा भंडार रखने से भी आरबीआई को कमाई होती है। इन सभी आय एवं राजस्व का एक हिस्सा आरबीआई के रिजर्व फंड के तौर पर जाना जाता है,जिसे इकॉनोमिक कैपिटल फ्रेमवर्क के तहत निर्धारित किया जाता है। पिछले एक वर्ष में आरबीआई का यह फंड 7.58 लाख करोड़ से बढ़कर 9.69 लाख करोड़ रुपए हो गया है।
लेकिन आरबीआई इस फंड को लगातार सुरक्षित रखने की कोशिश करता है, जिसके पीछे ठोस कारण हैं। पहली वजह यह है कि अगर अचानक वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारी उथल पुथल आ जाए और देश की विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट हो जाए तो इस फंड का प्रयोग संकट से निपटने में किया जा सकता है। मसलन, 2008-09 के समय जब वैश्विक मंदी गहरा रही थी, तब एक समय इस फंड के इस्तेमाल पर विचार किया गया था। आरबीआई बोर्ड बैठक में दोनों पक्षों ने पीसीए ढांचे को लेकर भी लचीलापन रूख दिखाया।
दो अन्य मुद्दों की बात करें तो आरबीआई ने सरकार की इच्छाओं का काफी हद तक मान रखा। बोर्ड ने आरबीआई प्रबंधन को यह मशविरा दिया कि वह एमएसएमई के कर्जदारों की ऋणग्रस्त मानक परिसंपत्तियों के पुनर्गठन की योजना पर विचार करे। यह सुविधा 25 करोड़ रुपए तक की ऋण सुविधा वाले संस्थानों के लिए तैयार की जानी है। केंद्रीय बैंक ने बैंकों के पूँजी और जोखिम के 9 फीसदी अनुपात के अनुपालन के लिए समय अवधि में भी इजाफा किया।
स्पष्ट है कि रिजर्व बैंक ने सरकार की अधिकांश मांगों को स्वीकार कर लिया है। पिछले वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था की रैंकिंग को बढ़ाने वाले क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने इस फैसले पर सवाल उठाए हैं।
मूडीज का कहना है कि बेसल-3 मानक के लिए बैंकों को अतिरिक्त समय देने से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। इसके अतिरिक्त मूडीज ने एनपीए के 25 करोड़ रुपए तक के जोखिम वाले लोन से भी भारतीय बैंकों पर असर पड़ने की आशंका जताई है। अच्छा होगा कि सरकार,रिजर्व बैंक के स्वायत्तता का सम्मान करे। साथ ही रिजर्व बैंक के रिजर्व फंड का प्रयोग अति आपातकालीन परिस्थितियों के लिए रिजर्व बैंक के विवेक पर ही प्रयोग हो,अन्यथा आर्थिक संकट से निकलने का आखिरी रास्ता भी आपातकाल में बंद हो जाएगा।
राहुल लाल
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