सर्वोच्च न्यायालय ने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों को हाल ही एक सख्त निर्देश देते हुए कहा है कि बलात्कार और यौन हिंसा पीड़ितों की पहचान किसी भी रूप में उजागर नहीं की जाए। फिर चाहे पीड़ित की मौत ही क्यों न हो चुकी हो। अदालत का इस बारे में कहना था कि यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे समाज में बलात्कार पीड़ितों के साथ अछूत जैसा व्यवहार किया जाता है। न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस संबंध में पुलिस को निर्देश देते हुए कहा कि बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामलों, ऐसे मामले भी जिनमें आरोपी नाबालिग हों, वह इसकी प्राथमिकी सार्वजनिक नहीं करे। अदालत ने इस तरह के निर्देश ट्रायल अदालतों को भी देते हुए कहा कि वे फैसलों में पीड़ितों के नाम, पते और माता-पिता का नाम न लिखें। शीर्ष अदालत ने इसके साथ ही केंद्र, राज्य सरकारों और केन्द्र शासित प्रदेशों को रेप पीड़िताओं के कल्याण और पुनर्वास के लिए कई महत्वपूर्ण निर्देश दिए। अदालत ने सरकारों को निर्देश देते हुए कहा कि देश के प्रत्येक जिले में रेप पीड़िताओं के लिए ‘एक वन स्टॉप सेंटर’ बनना चाहिए। जहां रेप से संबंधित मुद्दों के समाधान होने के अलावा पीड़िताओं के पुनर्वास के लिए भी उचित व्यवस्था हो। जाहिर है कि अदालत ने जो भी दिशा निर्देश दिए हैं, वे दुष्कर्म पीड़िता को राहत प्रदान करने वाले हैं। इन निर्देशों से उसे भविष्य में न्याय मिलने में आसानी होगी और कहीं भी परेशानी पेश नहीं आएगी।
गौरतलब है कि दिल्ली में निर्भया सामूहिक दुष्कर्म कांड के बाद से ही सर्वोच्च न्यायालय में बलात्कार पीड़ितों को मुआवजा देने, उनके लिए पुनर्वास नीति और महिलाओं की सुरक्षा आदि से संबंधित छह अलग-अलग याचिकाओं की एक साथ सुनवाई चल रही है। इन याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान अदालत में दुष्कर्म पीड़िताओं की सुरक्षा से जुड़ा यह संवेदनशील मुद्दा उठा था। इस मामले में न्याय मित्र की भूमिका निभा रही वरिष्ठ अधिवक्ता इन्दिरा जयसिंह ने न्यायालय में दलील दी थी कि अदालत के विचाराधीन मामलों में मीडिया समानान्तर सुनवाई कर रहा होता है। लिहाजा शीर्ष अदालत को महिलाओं के प्रति अपराध के मामलों की रिपोर्टिंग के लिये दिशा निर्देश निर्धारित करने चाहिए। इन्दिरा जयसिंह का यह भी दावा था कि सक्षम अदालत में आरोप पत्र दाखिल करने से पहले ही पुलिस, मीडिया को सूचनाएं लीक करती है, जो न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप के समान है।
उन्होंने कठुआ सामूहिक बलात्कार और हत्या मामले का जिक्र करते हुए दावा किया था कि इसमें अदालत में आरोप पत्र दाखिल होने से पहले ही मीडिया ने कुछ आरोपियों के निर्दोष होने का फैसला भी सुना दिया था। जबकि आईपीसी की धारा 228-ए (यौन अपराध पीड़ित की पहचान उजागर करने से संबंधित) और पोक्सो कानून की धारा 23 इसकी साफ तौर पर मनाही करती है। एक तरह से देखें, तो अदालत के समक्ष याचिकाकर्ताओं ने आईपीसी की इन धाराओं की व्याख्या करने का अनुरोध किया था। जिस पर अदालत ने संजीदगी से विचार करते हुए दुष्कर्म पीड़िताओं की गरिमा का पूरा ख्याल रखा और इस संबंध में एक बार फिर विस्तृत दिशा निर्देश जारी किए। इसी मामले में पिछली सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने इस बात पर भी जोर दिया था कि महिलाओं के प्रति अपराध के मामलों में निष्पक्ष सुनवाई के लिए प्रेस की आजादी और पीड़ित के अधिकार के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है।
किसी भी तरह का मामला हो, उसमें मीडिया के लिए एक लक्ष्मण रेखा बेहद जरूरी है। कहां से उसके अधिकार शुरू होते हैं और कहां पर खत्म। कहां तक उसकी आजादी है, और कहां पर ये आजादी खत्म। मीडिया, मामले की कवरेज जरूर करे, लेकिन इस बात का ख्याल करे कि उससे किसी के अधिकारों में हस्तक्षेप न हो। जो भी रिपोर्टिंग हो, वह मीडिया एथिक्स के अनुकूल हो। रिपोर्टिंग ऐसी हो कि वह किसी की गरिमा के साथ खिलवाड़ न करे। खास तौर से संवेदनशील मामलों में तो मीडियाकर्मियों का जैसे इम्तिहान होता है।
दुष्कर्म मामलों की ही यदि बात करें, तो इन मामलों में जब तक आखिरी इंसाफ नहीं आ जाता, दुष्कर्म पीड़िता की पहचान किसी भी तरह से उजागर नहीं होनी चाहिए। लेकिन इसे मीडियाकर्मियों का अति उत्साह कहें, अज्ञानता कहें या फिर ज्यादा होशियारी, वे कई बार पीड़िता का नाम और पहचान तक उजागर कर देते हैं, जिससे पीड़िता की समाज में न सिर्फ बदनामी होती है, बल्कि आगे चलकर उसे इंसाफ पाने में भी दिक्कत पेश आती है। कई मामलों में तो मीडिया खास तौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, जांच एजेंसी एवं जज की भूमिका में आ जाता है और खुद ही फैसला सुनाने लगता है। जबकि यह सब काम जांच एजंसियों और अदालत का है। दुष्कर्म और यौन हिंसा जैसे संवेदनशील मामलों की रिपोर्टिंग एहतियात और संवेदनशीलता के साथ होना चाहिए। वरना अपराधी इसका फायदा उठाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगा। अच्छी बात है कि अदालत ने इस संबंध में मीडिया को तो नसीहत दी ही, पुलिस और ट्रायल अदालतों को भी याद दिलाया कि वे किन कानून, कर्तव्य और नैतिक मूल्यों से बंधे हुए हैं।
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