सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर राम जन्मभुमि-बाबरी मस्जिद विवाद को सभी पक्षों के बीच मध्यस्थता से सुलझाने की सलाह दी है। हालांकि न्यायालय ने फिलहाल फैसला सुरक्षित रखा है। 5 सदस्यीय संविधान पीठ के सामने इस मामले पर जो बहस हुई उसमें न्यायालय ने कहा कि यह मसला किन्हीं दो पक्षों के बीच न होकर दो समुदायों का विवाद है। मसलन अदालत इसे सिर्फ भूमि के मालिकाना हक का मामला नहीं मान रही है, बल्कि इसके व्यापक प्रभाव पर भी उसकी नजर है। अदालत का यह दृश्टिकोण अपनी जगह उचित है, क्योंकि इसका प्रभाव करोड़ों देशवासियों पर पड़ेगा। न्यायालय ने यह दलील भी दी है कि बाबर द्वारा अतीत में क्या किया गया, उसे बदला नहीं जा सकता। इसलिए इस मुद्दे को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।
अदालत का यह व्यावहारिक पक्ष अपनी जगह ठीक है, किंतु पहले सुलह की अनेक कोशिशों के बावजूद भी समस्या का हल नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के कार्यकाल में जब आपसी बातचीत से इस मसले के सार्थक प्रयास हुए तब रूढ़िवादी वामपंथी इतिहासकारों ने मुस्लिम पक्ष को सुलह नहीं करने के लिए उकसाया था। इस संकीर्ण सोच के चलते जहां दस्तावेजी साक्ष्यों को नकारा गया, वहीं पुरातात्विक साक्ष्यों को भी दरकिनार किया गया। इस लिहाज से लगता है कि अदालत सुलह की कोशिश भले ही करे, सुलह होना नामुमकिन है।
पिछले 70 साल से यह विवाद विभिन्न अदालतों से होता हुआ शीर्ष न्यायालय की दहलीज पर आकर ठिठका सा लग रहा है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल में आयोध्या में विवादित ढांचे में स्थित राम मंदिर का ताला खोलने की अनुमति फैजाबाद अदालत ने दी थी। इसके बाद विश्व हिंदू परिशद् और बांवरी मस्जिद संघर्श समिति के बीच शुरू हुए विवाद का दुखद अंत इस ढांचे को ढहाए जाने की परिणति के रूप में सामने आया। 2010 में हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों व रडार तकनीक से जुटाए गए सबूतों के आधार पर विवादित स्थल के नीचे मंदिर के अवशेष होना पाया।
इस आधार पर विवादित 840 वर्ग फीट भूमि का स्वामित्व मंदिर के पक्षकारों का माना, लेकिन 3 सदस्यीय न्यायमूर्तियों की पीठ में से एक ने दोनों समुदायों के बीच समरसता बनाए रखने की पैरवी करते हुए 280 वर्ग फीट भूमि इस्लाम धर्मावलंबियों देने का आदेश दिया। नतीजतन मालिकाना हक की अस्पष्टता के चलते दोनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। तब से मामला लंबित है। अब फिर एक बार शीर्ष न्यायालय ने इसे आस्था का मामला बताया है।
इसके पहले इसी न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ एवं एसके कॉल की पीठ ने कहा था कि यह धर्म और आस्था से जुड़ा मामला होने के कारण संवेदनशील है, लिहाजा इसे अदालत के बाहर निपटाना बेहतर होगा। लेकिन परिणाम शून्य रहा। जिस वर्तमान पीठ ने समझौते से मामला सुलझाने की सलाह दी है, उसमें भी न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ शामिल हैं। चंद्रचूड़ समझौता की दलीलों से थोड़ा असहमत दिखे। उनका संदेह है कि मध्यस्थता से जो फैसला आएगा, उसे करोड़ों लोग आसानी से स्वीकार लेंगे। अलबत्ता यहां सवाल उठता है कि भूमि स्वामित्व का हक अदालत से निश्चित क्यों नहीं हो सकता ? इससे यह संदेश निकलता है कि संविधान और कानून के अनुसार काम करने वाली शीर्ष न्यायालय स्वयं को कहीं दुविधा में तो नहीं पा रही है ?
अयोध्या विवाद देश के हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच लंबे समय से तनाव का कारण बना हुआ है। इस मुद्दे ने देश की राजनीति को भी प्रभावित किया है। विश्व हिंदू परिशद् अयोध्या में उस विवादित स्थल पर मंदिर बनाना चाहती है, जहां पहले एक कथित रूप से मस्जिद थी। जबकि मुस्लिमों का पक्ष है कि यहां मंदिर होने के कोई साक्ष्य नहीं हैं। यह स्थान 1528 से मस्जिद है और 6 दिसंबर 1992 तक इसका उपयोग मस्जिद के रूप में होता आया है।
हालांकि पुरातत्वीय साक्ष्यों और लोकसाहित्य से यह प्रमाणित होता है कि 1528 में एक ऐसे स्थल पर हिंदुओं को अपमानित करने की दृष्टि से मस्जिद का निर्माण कराया गया, जहां भगवान राम की जन्मस्थली थी। 1528 में मुगल बादशाह बाबर ने यह मस्जिद बनवाई थी। इस कारण इसे बाबरी मस्जिद कहा जाता है। 1853 में पहली बार इस स्थल को लेकर हिंदू और मुस्लिम समुदायों में सांप्रदायिक झड़प हुई। 1859 में चालाकी बरतते हुए ब्रिटिश शासकों ने विवादित स्थल पर रोक लगा दी और विवादित परिसर क्षेत्र में दो हिस्से करके हिंदुओं और मुस्लिमों को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी।
आजादी के बाद 1949 में मस्जिद में भगवान राम की मूर्तियां पाई गई। एकाएक इन मूर्तियों के प्रकट होने पर मुस्लिमों ने विरोध जताया। दोनों पक्षों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। नतीजतन सरकार ने इस स्थल को विवादित घोशित कर ताला डाल दिया और दोनों सम्प्रदायों के प्रवेश पर रोक लगा दी। 1984 में विहिप ने भगवान राम के जन्मस्थल को मुक्त करके वहां राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया। इस अभियान का नेतृत्व भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने संभाला।
1986 में जब केंद्र में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार थी तब फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर ने हिंदुओं को पूजा के लिए विवादित ढांचे के ताले खोल दिए। इसके परिणामस्वरूप मुस्लिमों ने वावरी मस्सिद संघर्श समिति बना ली। 1989 में राम मंदिर निर्माण के लिए विहिप ने अभियान तेज किया और विवादित स्थल के नजदीक मंदिर की नींव रख दी। 1990 में विहिप के कार्यकतार्ओं ने विवादित ढांचे को क्षति पहुंचाने की कोशिश की, लेकिन तबके प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बातचीत से मामला सुलझाने की कोशिश की, किंतु कोई हल नहीं निकला।
हालांकि पुरातत्वीय साक्ष्यों, निर्मोही अखाड़े और गोपाल सिंह विशारद द्वारा मंदिर के पक्ष में जो सबूत और शिलालेख अदालत में पेश किए गए थे, उनसे यह स्थापित हो रहा था कि विंध्वस ढांचे से पहले उस स्थान पर राममंदिर था। जिसे आक्रमणकारी बाबर ने हिन्दुओं को अपमानित करने की दृष्टि से शिया मुसलमान मीर बांकी को मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाने का हुक्म दिया था। मस्जिद के निर्माण में चूंकि शिया मुसलमान मीर बांकी के हाथ लगे थे, इस कारण इस्लामिक कानून के मुताबिक यह शिया मुसलमानों की धरोहर था। इसकी व्यवस्था संचालन के लिए शिया मुतवल्ली की भी तैनाती बाबर के ही समय से चली आ रही थी।
उत्तराधिकारी के रूप में जिस मुतवल्ली की तैनाती थी, उस व्यक्ति ने हिन्दू संगठनों से मिलकर बाबरी ढांचे को विवादित परिसर से बाहर ले जाकर स्थापित करने में सहमति भी जता दी थी। मालिकाना हक भी इसी मुतवल्ली का था। लेकिन सुन्नी वक्फ बोर्ड ने ऐसा नहीं होने दिया और मामला कचहरी की जद में बना रहा। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में राम की दिव्यता और उनके प्रति आस्था का जिक्र भले ही था लेकिन तीनों विद्वान न्यायाधीशों ने आखिरकार जनभावनाओं और आस्था को दरकिनार करते हुए फैसले का आधार पुरातत्वीय सर्वेक्षण की रिपोर्ट और साक्ष्यों को ही माना था। ऐसे में एक बार फिर इस मुद्दे को धर्म और आस्था के बहाने पक्षकारों की सहमति पर छोड़ने का औचित्य समझ से परे है ?
हालांकि अदालतों में विचाराधीन मामलों को अदालत से बाहर बातचीत के जरिए निपटाया जाता है। कानून में कोर्ट आॅफ सिविल प्रोसिजर में इस तरह के प्रावधान हैं। विधिक सेवा प्राधिकरण कानून 1987 में बना था। लेकिन 9 नबंवर 1995 को यह लागू हो पाया। इसके तहत मामलों का निपटारा आपसी सहमति से संभव है। लोक अदालतों में भी भूमि के स्वामित्व व बंटवारा से संबंधित विवाद हल किए जाते हैं। लेकिन इस मामले के बातचीत से हल की उम्मीद इसलिए कम है, क्योंकि कोई भी पक्ष पीछे हटने को तैयार नहीं है।
हालांकि विवादित स्थल राम की जन्मभूमि होने की मान्यता प्राचीन संस्कृत साहित्य और जनश्रुतियों में हजारों साल से बनी हुई है। किंतु इन मान्यताओं के आधार पर मुस्लिम पक्षकार पीछे हट जाएं ऐसा लग नहीं रहा हैं। बावजूद इस मुद्दे का बातचीत से हल निकालने की कोशिशें प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, पीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी करते रहे है, परंतु सफलता नहीं मिली। इसलिए सुलह की इस अंतिम कोशिश के बाद इस मसले को लगातार सुनवाई से निपटाना जरूरी है।
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