अमेरिका में नस्लीय हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही। पिछले दिनों एक स्टोर के सिख मालिक की गोली मारकर हत्या कर दी, फिर एक गुजराती विद्यार्थी व एक डाक्टर की हत्या हुई। इन्हीं दस दिनों के भीतर नस्लीय हमलावरों ने दो जानें ले ली। यह घटनाएं पिछले कई सालों से जारी हैं। चिंताजनक बात यह है कि ट्रप प्रशासन ऐसीं घटनाओं के प्रति चिंतित नजर नहीं आ रहा। नस्लीय हिंसा से अमेरिका में रह रहे 16 लाख के करीब भारतीय लोग दहशत में हैं लेकिन वाशिंगटन प्रशासन की कोई सख्त प्रतिक्रिया नहीं आई और इन घटनाओं को रुटीन की बात के तौर पर लिया जा रहा है।
भारतीय मूल के लोगों द्वारा बनाए गए धार्मिक स्थानों पर हमले बढ़ रहे हैं। ज्यादातर मामलों में हमलावर भारतीयों के लिए अभद्र शब्दावली का प्रयोग करते हुए उन्हें अमेरिका छोड़ने के लिए भी कह रहे हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प व पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा का कार्यकाल बिल्कुल मेल नहीं खा है। ओबामा के कार्यकाल में एक भारतीय की मौत पर पूरे अमेरिका में शोक मनाया गया था। उस वक्त नस्लीय हिंसा को बड़ा अपराध माना गया।
खुद राष्ट्रपति ओबामा ने उक्त घटना पर बयान जारी किया लेकिन ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने से पहले ही अमेरिकावाद की ऐसी लहर चली कि दूसरे देशों के लोगों के लिए नफरत पैदा होनी शुरू हो गई। ट्रम्प ने चुनावों में यह वायदा बार-बार किया कि वह अमेरिकी नागरिकों के रोजगार को बरकरार रखने के लिए सख्त कदम उठाएंगे। ट्रम्प के इस प्रचार का प्रभाव भी हुआ और वह राष्ट्रपति बनने में सफल भी हुए। पद संभालने के बाद वीजा शर्तों को सख्त करने की बयानबाजी होती रही। वास्तव में अमेरिका की मानववादी संस्कृति का हस हो रहा है जिसका आधार मार्टिन लूथर, इब्राहिम लिंकन जैसे विद्ववानों की विचारधारा पर टिका हुआ है।
भारतीय लोगों ने अमेरिका के विकास में बड़ी अहम भूमिका निभाई है और वह सम्मान पाने के बराबर हकदार हैं। अमेरिका की तरक्की में से यदि भारतीय डाक्टरों, इंजीनियरों शोधकर्ताओं के योगदान को निकाल दें। तब वहां काफी कुछ खोया खोया नजर आएगा। भारत सरकार को चाहिए कि वह प्रवासी भारतीयों के हितों के लिए अमेरिकी प्रशासन के समक्ष जोरदार आवाज उठाए। प्रवासी भारतीयों के पास केवल निवेश या चुनाव के समय ही भारतीय नेताओं को चक्कर नहीं काटने चाहिए बल्कि उनके दुख-सुख को ध्यान में रखकर सरकार को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।
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