गत दिवस न्यूजीलैंड की दो मस्जिदों में हुए नस्लीय हमला यूरोप व अमेरिका में गैर-ईसाईयों के लिए चिंताजनक है। हमलावर ने जिस प्रकार अपना एजेंडा फेसबुक पर पोस्ट किया उससे यह स्पष्ट है कि यह हमला अचानक किसी घटना का प्रतिकर्म, प्रतिक्रिया या गुस्सा नहीं था बल्कि यह उस नफरत की उपज है जो पिछले कई सालों से छोटे से लेकर राष्ट्रीय-नेताओं ने अपने जहरीले भाषणों से भरी है। मानवीय अधिकारों के सबसे बड़े समर्थक देश अमेरिका में आए दिन सिख व्यक्तियों पर हमले होते रहते हैं।
इन देशों में कम संख्या या प्रवासियों के धार्मिक स्थानों पर भी हमले हुए हैं। न्यूजीलैंड की घटना रूह कंपाने वाली है और इन्हें रोकने के लिए किसी और सबक का इन्तजार करना मूर्खता होगी। यूरोपीय व अमेरिकी देशों में शरारती तत्वों को नस्लीय हिंसा करने के लिए तब प्रोत्साहन मिलती है जब वहां के शासक किसी धर्म विशेष के हितों की सुरक्षा को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। अमेरिका में सन 2000 के बाद नस्लीय हमलों की संख्या में वृद्धि हुई है। इन घटनाओं ने तत्कालीन राष्ट्रपति बराक उबामा को झकझौर दिया था।
अमेरिकी अधिकारियों ने हवाई अड्डों पर भारतीय नेताओं को भी नहीं बक्शा। सुरक्षा के नाम पर भारतीय नेताओं को परेशान किया गया। डोनाल्ड ट्रम्प ने राष्ट्रपति चुनाव जीतने से पूर्व ही यह माहौल बना दिया था कि अमेरिकी मूल के लोग प्रवासियों को अपने रोजगार के लिए खतरा मानने लगे। ट्रम्प ने अमेरिकी नागरिकों की नौकरियां बचाने की दोहाई देकर वीजा शर्तों को सख्त करने के कई बार बयान दिए। भले ही ऐसी बयानबाजी से ट्रम्प की अपनी जनता में लोकप्रियता बढ़ी हो लेकिन इस रुझान से नस्लीय नफरत का ऐसा जहर उगला गया कि हवाई यात्रा के दौरान यात्रियों द्वारा एक-दूसरे पर नस्लीय टिप्पणियां शुरू हो गई और धर्म विशेष के लोगों को जहाज से उतार दिया गया।
नस्लीय नफरत देशों की सीमा पार कर न्यूजीलैंड में नरसंहार का रूप धारण कर लिया। नि:संदेह हमलावर पकडे जाएंगे और सजाएं भी होंगी लेकिन समस्या तब तक हल नहीं होती जब तक सरकार व राजनैतिक पदों पर बैठे नेता अपने स्वार्थों के लिए नफरत फैलाने से गुरेज नहीं करते। आज विश्व सिकुड़ रहा है। अधिकतर देशों में प्रवासियों के बिना उस देश का आर्थिक ढांचा उलझ सकता है। प्रवासियों में डर की भावना खत्म करने की जरूरत है। सुरक्षा के साथ-साथ सदभावना पर जोर देना होगा।
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