चुनाव आयोग की क्षमता पर उठते सवाल

Questions arising on the capacity of the Election Commission

चुनाव के दौरान देश के लोकतांत्रिक महोत्सव की गरिमा गिराते तमाम राजनीतिक दलों के बड़बोले नेताओं पर लगाम लगाने के लिए जो कदम चुनाव आयोग द्वारा बहुत पहले ही उठा लिए जाने चाहिएं थे। अंतत: सुप्रीम कोर्ट के सख्त रूख के बाद आयोग को चुनावों की शुचिता बरकरार रखने हेतु उसके लिए बाध्य होना पड़ा। अदालत को कहना पड़ा था कि आयोग ऐसे मामलों को नजरअंदाज नहीं कर सकता। चुनावी प्रक्रिया में शुचिता लाने के लिए इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने ही समय-समय पर कड़े कदम उठाए हैं। अदालती सक्रियता के चलते ही चुनावों के दौरान जेल से चुनाव न लड़ पाने, अपराधियों, दागियों, धन-बल या विभिन्न अनैतिक तरीकों से मतदाताओं को लुभाने, कानफोडू प्रचार, गली.मोहल्लों में पोस्टरों इत्यादि से निजात मिल सकी। इस बार भी चुनावी शुचिता के लिए निर्वाचन आयोग को सख्त हिदायत देते हुए अदालत ने जो पहल की है, उसके लिए देश की सर्वोच्च अदालत प्रशंसा की हकदार है।

आश्चर्य की बात रही कि अदालत की कड़ी फटकार से पहले आयोग ऐसे बदजुबान नेताओं को नसीहत या चेतावनी देने और नोटिस थमाने तक ही अपनी भूमिका का निर्वहन करता रहा, जिसका किसी भी नेता पर कोई असर नहीं देखा गया और जब अदालत द्वारा आयोग से इस संबंध में सवाल किए गए तो आयोग ने अपने अधिकारों और शक्तियों को लेकर अपनी लाचारगी का रोना रोना शुरू कर दिया। ऐसे में सर्वोच्च अदालत द्वारा आयोग को उसकी शक्तियों और अधिकारों की याद दिलाई गई, जिसके बाद आयोग की तंद्रा टूटी और वह न केवल बदजुबान नेताओं पर कार्रवाई के मामले में सक्रिय दिखा बल्कि आदर्श चुनाव संहिता के उल्लंघन के मामले में उसने कर्नाटक की वेल्लोर सीट पर 18 अप्रैल को होने वाले चुनाव को भी रद्द कर दिया, जहां 10 अप्रैल को डीएमके प्रत्याशी केण् आनंद तथा उनके दो सहयोगियों के घरों पर आयकर विभाग के छापों के दौरान 11.53 करोड़ की नकदी बरामद हुई थी। आरोप लग रहे थे कि इस तरह का काला धन बड़ी संख्या में मतदाताओं को लुभाने के लिए बांटा जा रहा है।

चुनाव आयोग एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था है, जिसके मजबूत कंधों पर शांतिपूर्वक निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने की अहम जिम्मेदारी है। वह किसी प्रकार के राजनीतिक दबाव से मुक्त होकर यह कार्य सम्पन्न करा सके, इसके लिए उसे अनेक शक्तियां और अधिकार संविधान प्रदत्त हैं। ऐसा नहीं है कि आयोग शक्तिहीन है बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत उसके पास चुनावी रंग को बदरंग करने वाले नेताओं या राजनीतिक दलों के खिलाफ कार्रवाई करने के पर्याप्त अधिकार हैं और चुनावी प्रक्रिया की शुरूआत से ही होना तो यही चाहिए था कि आयोग द्वारा अश्लील बयानबाजी और समाज को बांटने वाली टिप्पणियां करने वाले लोगों से सख्ती से निपटा जाता ताकि आचार संहिता की इस प्रकार सरेआम धज्जियां उड़ाने की दूसरों की हिम्मत ही नहीं होती। देशभर में चुनाव आचार संहिता के सरासर उल्लंघन के अनेकों मामले सामने आने के बाद भी आयोग के नरम रूख का ही असर है कि सुप्रीम कोर्ट के सख्त रूख के बाद चार बड़े नेताओं पर कार्रवाई करने के बाद भी विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की फिजां में जहर घोलने की फितरत बदलने का नाम नहीं ले रही।

एक ओर जहां जयाप्रदा को लेकर अश्लील टिप्पणी के बाद आयोग की कार्रवाई के पश्चात् भी आजम खान ने दो ही दिन बाद फिर मयार्दाहीन टिप्पणी की कि चुनाव के बाद कलेक्टरों से मायावती के जूते साफ करवाएंगे तो विवादास्पद कांग्रेसी नेता नवजोत सिंह सिद्धू कटिहार में नफरत फैलाने वाली राजनीतिक बयानबाजी करते नजर आए। शिवसेना सांसद संजय राउत ने तो सरेआम बयान दे डाला कि वे न कानून को मानते हैं और न ही उन्हें चुनाव आयोग या आचार संहिता की कोई परवाह है। ऐसे में यह देखना होगा कि अदालत द्वारा पेंच कसे जाने के बाद आयोग अब आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले नेताओं पर कितना सख्त रूख अपनाता है।

आयोग के लचीले रूख के कारण ही इस बार राजनीति का बेहद छिछला स्तर देखते हुए कदम.कदम पर यही लगता रहा हैए जैसे किसी भी राजनीतिक दल या नेता को चुनाव आयोग के डंडे का कोई भय ही नहीं है। हमारी राजनीति की मयार्दा तो दिनों दिन गर्त में जा ही रही हैए कम से कम निर्वाचन आयोग को तो मयार्दाहीन नेताओं पर सख्ती दिखाते हुए अपनी मयार्दा की रक्षा करने के साथ-साथ लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लोगों के लिए एक स्वस्थ मिसाल बनकर सामने आना चाहिए ताकि लोकतंत्र में उनका भरोसा बरकरार रहे।

आज आयोग भले ही स्वयं को सीमित अधिकारों और शक्तियों वाली संवैधानिक संस्था के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही दशकों पहले इसी आयोग के टी एन शेषन नामक एक कठोरए निष्पक्ष और सख्त मिजाज अधिकारी ने आयोग की इन्हीं शक्तियों और अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए तमाम राजनीतिक दलों और नेताओं की बोलती बंद कर दी थी। अगर इतने वर्षों पहले एक चुनाव अधिकारी इतना कुछ कर सकता था तो आज आयोग स्वयं को इतना बेबस क्यों दिखा रहा है। सही मायने में आज निर्वाचन आयोग में चुनाव सुधारों के लिए विख्यात रहे टी एन शेषन जैसे सख्त अधिकारियों की ही जरूरत हैए जो आयोग की अपने अधिकारों का निर्भय होकर इस्तेमाल करते हुए आयोग की विश्वसनीयता बहाल कर आमजन का भरोसा स्वयं के साथ-साथ लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति भी बरकरार रख सकें।

 

 

 

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