प्रीम कोर्ट ने इलेक्टॉरल बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों के फंडिंग पर तो कोई अंतरिम रोक नहीं लगाई,लेकिन पार्दर्शिता हेतु पार्टियों को निर्देश दिया कि इलेक्टॉरल बांड के जरिए 15 मई 2019 तक मिले चंदे की पूरी डिटेल्स सीलबंद लिफाफे में 30 मई तक चुनाव आयोग को सौंपे। शीर्ष अदालत ने कहा कि इस ब्योरे में प्रत्येक बांड के दानदाताओं, रकम और उनके बैंक खातों का भी ब्यौरा दिया जाए। साथ ही जिस-जिस तारीख पर दानकतार्ओं से जितनी रकम मिली है, उसका संपूर्ण ब्यौरा इसमें शामिल हो। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने केंद्र सरकार की आम चुनाव खत्म होने तक दखल न देने की दलील खारिज करते हुए कहा कि हम मामले को विस्तार से देखेंगे। प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने शुक्रवार को चुनावी बॉंड योजना पर रोक की माँग संबंधी गैर सरकारी संगठन “एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म “की याचिका पर यह अंतरिम आदेश दिया। संस्था का कहना है कि इलेक्टॉरल बांड की अपारदर्शी व्यवस्था के कारण बड़े उद्योगपति दलों को गोपनीय तरीके से चंदा देते हैं,ऐसा करके वे नीतिगत फैसलों को प्रभावित कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इलेक्टॉरल बॉण्ड योजना की वैधानिकता बड़ा मुद्दा है,जिसपर विस्तृत सुनवाई की आवश्यकता है। दोनों पक्षों के विरोधाभासी दावों व दलीलों के बीच इस अंतरिम आदेश में यह सुनिश्चित किया गया कि संतुलन कायम रहे,क्योंकि अभी इसपर अंतिम निर्णय आना शेष है।
आखिर इलेक्टॉरल बांड क्या है?
केंद्र सरकार ने देश के राजनीतिक दलों के चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए वित्त वर्ष 2017-18 के बजट में इलेक्टॉरल बांड शुरू करने का एलान किया था। इलेक्टॉरल बांड से मतलब एक ऐसे बांड से होता है,जिसके ऊपर एक करेंसी नोट की तरह उसकी वैल्यू लिखी होती है। यह बांड व्यक्तियों,संस्थाओं अथवा संगठनों द्वारा राजनीतिक दलों को पैसा दान करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
चुनावी बांड एक हजार, दस हजार, एक लाख,दस लाख तथा एक करोड़ रुपए के मूल्य के होते हैं। सरकार की ओर से चुनावी बांड जारी करने और उसे भुनाने के लिए भारतीय स्टेट बैंक को अधिकृत किया गया है,जो अपनी 29 शाखाओं के माध्यम से यह काम करता है। इलेक्टॉरल बांड को लाने के लिए सरकार ने फाइनेंस एक्ट-2017 के जरिए रिजर्व बैंक एक्ट-1937,जनप्रतिनिधित्व कानून -1951,आयकर एक्ट-1961 और कंपनी एक्ट में कई संशोधन किए गए थे। इलेक्टॉरल बांड भुनाने की अल्प अवधि: इलेक्टॉरल बांड खरीदे जाने के केवल 15 दिन तक मान्य रहता है। केंद्र सरकार का कहना है कि कम अवधि की वैधता के कारण बांड के दुरुपयोग को रोकने में मदद मिलती है। इसका आशय है कि इन्हें खरीदने वालों को 15 दिनों के अंदर ही राजनीतिक दल को देना पड़ता है और राजनीतिक दलों को भी इन्हीं 15 दिनों के अंदर कैश कराना होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने बांड खरीदने के 5 अतिरिक्त दिनों को खत्म करने निर्णय दिया: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वित्त मंत्रालय को चुनावी बांड जारी होने के नियत समय में से 5 दिनों को खत्म करने का फैसला लेना होगा,क्योंकि ऐसे बांड जारी होने के कुल दिनों की संख्या 50 तक सीमित होनी चाहिए। इलेक्टॉरल बांड योजना 2018 के खंड -8 के मुताबिक बांड जनवरी,अप्रैल,जुलाई और अक्टूबर माह में 10 दिनों के लिए जारी किए जा सकते हैं। चुनावी वर्ष में 30 दिन अतिरिक्त दिए गए हैं। 2019 में सरकार ने जनवरी माह में 10 दिनों के लिए बांड जारी किया था। इसके अलावा मार्च,अप्रैल और मई माह में बांड जारी करने के लिए 45 दिन दिए गए। वर्ष 2019 चुनावी वर्ष है,ऐसे में 30 दिनों की अनुमति वाली संख्या भी गिनी जाएगी। ऐसे में कुल दिनों की संख्या 55 हो गई,जो मई तक की 50 दिनों की अंतिम सीमा से 5 अधिक है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे में नियत तिथि में से 5 दिन की अवधि कम करनी होगी।
इलेक्टॉरल बांड पर विवाद का कारण: पॉलिटिकल फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ाने के तमाम दावों के बीच इलेक्टॉरल बांड पर भी अपारदर्शी होने का आरोप लगने लगा। राजनीतिक दलों की फंडिंग में अज्ञात स्रोतों से आने वाले आय की मात्रा बहुत ज्यादा होती है। पिछले 15 वर्षों में अज्ञात स्रोतों से मिलने वाले राजनीतिक दलों के चंदे की मात्रा काफी ज्यादा रही। लेकिन इलेक्टॉरल बांड से भी इसमें ज्यादा बदलाव नहीं आया था। यह लगता है कि इन बांडों के जरिए चंदे का कानून बनने से हम एक अपारदर्शी व्यवस्था को छोड़कर एक दूसरी अपारदर्शी व्यवस्था के दायरे में आ गए हैं। इसके पूर्व की व्यवस्था में राजनीतिक दलों को 20 हजार रुपए से कम चंदे का विवरण न बताने की छूट थी। इसका भारी दुरूपयोग हो रहा था। चुनावी बांड की व्यवस्था बनने की बाद इस छूट की सीमा 2000 रुपये कर दी गई।
इलेक्टॉरल बांड पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के कार्यप्रणाली पर प्रश्न उठाया: सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टॉरल बांड के मुद्दे पर केंद्र सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाया। शीर्ष अदालत ने गुरुवार(11 अप्रैल) को कहा कि सरकार की काले धन पर लगाम लगाने की कोशिश के रूप में इलेक्टॉरल बांड की कवायद पूरी तरह बेकार है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिस तरह से इलेक्टॉरल बांड्स की बिक्री को लेकर बैंकों को कोई जानकारी नहीं दी जा रही है,इससे लगता है कि यह ब्लैक मनी को व्हाइट करने का तरीका है। चीफ जस्टिस गोगोई ने अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल से पूछा,क्या इलेक्टॉरल बांड खरीदने वाले की जानकारी बैंक के पास है? इस पर अटॉर्नी जनरल ने कहा कि हाँ,केवाईसी के कारण ऐसा है। हालांकि खरीददारी पहचान गोपनीय रखी जाती है और माह के अंत में इसकी जानकारी केंद्रीय कोष को दी जाती है। इस पर सीजेआई ने पूछा-“हम यह जानना चाहते हैं कि जब बैंक एक इलेक्टॉरल बांड “एक्स या वाई” को जारी करता है,तो बैंक के पास इस बात का विवरण होता है कि कौन सा बांड “एक्स” को और कौन सा बांड “वाई” को जारी किया जा रहा है। “इस पर के के वेणुगोपाल ने “नहीं” में जवाब दिया। इस पर सीजेआई ने कहा कि यदि ऐसा है, तो काले धन के खिलाफ लड़ाई लड़ने की आपकी पूरी कवायद व्यर्थ है।
इलेक्टॉरल बांड और चुनाव आयोग: सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग ने कहा कि हम इलेक्टॉरल बांड के खिलाफ नहीं हैं,लेकिन हम दानदाताओं के नाम गोपनीय रखने के खिलाफ हैं। चुनाव आयोग का कहना है कि उन्होंने 2017 में कानून के निर्माण के समय भी केंद्र सरकार से पुनर्विचार की माँग की थी। चुनाव आयोग का यह भी कहना है कि गोपनीयता के कारण रिप्रजेंटेशन आॅफ पीपुल्स एक्ट की धारा-29 बी के तहत कानून का उल्लंघन हुआ है या नहीं, इसकी जांच में चुनाव आयोग को कठिनाइयां आ रही है। इस धारा के तहत विदेशी स्रोत से राजनीतिक पार्टियाँ धन प्राप्त नहीं कर सकती है। 2017 में तो चुनाव आयोग ने सरकार के इस कदम को प्रतिगामी बताया, जिसे तुरंत हटाने की माँग की थी।
निष्कर्ष: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 324 निर्वाचन आयोग को चुनाव से संबंधित अनन्य शक्तियाँ प्रदान करता है। ऐसे में चुनाव आयोग की इलेक्टॉरल बांड के प्रति विरोध को सुप्रीम कोर्ट ने पर्याप्त महत्व दिया। इस दृष्टि से 30 मई तक चुनावी बांड के सभी चंदे का हिसाब सभी राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव आयोग को देने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है। भारतीय चुनाव प्रक्रिया में धन बल का प्रयोग अत्यधिक होता है। ऐसे में अगर चुनावी चंदे की व्यवस्था को अत्यंत पारदर्शी न बनाया गया, तो राजनीति के काले धन से संचालित होने के संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता। इसलिए यह आवश्यक है कि “इलेक्टॉरल बांड” संबंधित जानकारी न केवल चुनाव आयोग तक सीमित रहे,अपितु सामान्य मतदाताओं को भी पता हो। इलेक्टॉरल बांड पर सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय अभी अंतरिम है। आशा है कि जल्द ही देश में राजनीतिक दलों के चंदे से संबंधित एक ऐसा पारदर्शी ढ़ाँचा बन सकेगा,जहाँ राजनीतिक दलों के ‘अज्ञात स्रोत’ वाले चंदे का मॉडल समाप्त हो सके।
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