यह बहस लंबे समय से चल रही है कि न्यायिक पदों से सेवानिवृत्त हुए लोगों की नियुक्ति या मनोनयन किसी महत्वपूर्ण या लाभदायी पद पर नहीं की जाए ? गोगोई ने स्वयं सीजेआई रहते हुए एक मामले में यह टिप्पणी की थी कि सेवानिवृत्ती के बाद किसी पद पर जजों की नियुक्ति अथवा मनोनयन नहीं होना चाहिए। इससे स्वतंत्र न्यायपालिका पर सवाल खड़े होते हैं। लेकिन फिलहाल कथनी और करनी में भेद की कहावत उन्हीं पर चरितार्थ हो रही है।
सर्वोेच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) रंजन गोगोई को राज्यसभा में मनोनीत किए जाने पर एक बार फिर न्यायापालिका के परिप्रेक्ष्य में नैतिकता के सवाल उठ खड़े हुए हैं। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गोगोई को मनोनीत किया है। राष्ट्रपति को उच्च सदन राज्यसभा में 12 सदस्य मनोनीत किए जाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। इस सदन में कुल 245 सदस्य होते हैं। संविधान निमार्ताओं ने उच्च सदन में मनोनयन का प्रबंध इस पवित्र उद्देश्य से किया था कि ऐसे विषयों के विशेषज्ञों को राज्यसभा में भेजा जा सकता है, जो चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से इस सदन में नहीं पहुंच पाते हैं। इस लक्ष्यपूर्ति के लिए कला, संस्कृति, साहित्य, विज्ञान और समाजसेवा के क्षेत्रों से जुड़ी ऐसी प्रतिभाओं को राज्यसभा के मंच पर लाना था, जिनके विचार एवं ज्ञान का उपयोग देशहित में किया जा सके। इस नाते एक समय तक लब्ध-प्रतिष्ठित लेखक एवं विचारकों को सदन में भेजा भी जाता रहा है। रामधारी सिंह दिनकर ऐसे लोगों में रहे हैं।
लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब शराब माफिया विजय माल्या को भी इस सदन का भागीदार बना दिया गया था। ऐसे लोगों से ही सदन की गरिमा प्रभावित हुई है। न्यायिक क्षेत्र से रंजन गोगोई कोई पहली बार राज्यसभा में मनोनीत किए गए हों, ऐसा नहीं है ? उनके पहले भी अनेक पूर्व प्रधान न्यायाधीशों और उच्च न्यायालयों के न्यायमूर्तियों को सरकारों द्वारा राज्यसभा व आयोगों में मनोनीत किया जाता रहा है। गोया, उनके मनोनयन पर प्रश्न खड़े करना अनुचित है।
यह बहस लंबे समय से चल रही है कि न्यायिक पदों से सेवानिवृत्त हुए लोगों की नियुक्ति या मनोनयन किसी महत्वपूर्ण या लाभदायी पद पर नहीं की जाए ? गोगोई ने स्वयं सीजेआई रहते हुए एक मामले में यह टिप्पणी की थी कि सेवानिवृत्ती के बाद किसी पद पर जजों की नियुक्ति अथवा मनोनयन नहीं होना चाहिए। इससे स्वतंत्र न्यायपालिका पर सवाल खड़े होते हैं। लेकिन फिलहाल कथनी और करनी में भेद की कहावत उन्हीं पर चरितार्थ हो रही है। दरअसल उनके इस मनोनयन को राम मंदिर, सबरीवाला मंदिर और राफेल सहित कई ऐतिहासिक फैसलों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है। इसलिए इस मनोनयन पर नरेंद्र मोदी सरकार के साथ-साथ गोगोई की आलोचना भी होने लगी है।
कांग्रेस सांसद एवं प्रसिद्ध वकील कपिल सिब्बल ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा है कि न्यायमूर्ति गोगोई राज्यसभा जाने की खातिर सरकार के साथ खड़े होने और स्वयं की ईमानदारी के साथ समझौता करने के लिए याद किए जाएंगे। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने अपने ट्विट पर कहा कि अब न्यायापालिका पर जनता का विश्वास कम होता जा रहा है। एआईएमआईएम के सांसद अससुद्धीन औवेसी ने कहा कि अब जजों की स्वतंत्रता पर यकीन कैसे किया जाएगा ? कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने तो नेताजी सुभाष के नारे ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगाह्य की तर्ज पर यहां तक कह दिया कि तुम मेरे हक में वैचारिक फैसला दो, मैं तुम्हें राज्यसभा सीट दूंगा।’
25 फरवरी 1968 से 16 दिसंबर 1970 तक सीजेआई रहे हिदायतुल्लाह को सेवानिवृत्ती के बाद कांग्रेसी अनुकंपा के चलते उपराष्ट्रपति बना दिया गया था। मालूम हों संविधान के अनुसार उपराष्ट्रपति ही राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं। सीजेआई रंगनाथ मिश्रा को 1998 में सेवानिवृत्ति के बाद राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया था। 31 अक्टूबर 1984 के दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के बाद सिख विरोधी दंगे पूरे देश में भड़के थे। इन दंगों में करीब 3000 सिख मार दिए गए थे। यह घटना देश की सबसे बड़ी मॉब लीचिंग थी। इस घटना की जांच के लिए 26 अप्रैल 1985 को प्रधानमंत्री राजीव गांधी सरकार ने न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच आयोग बनाया। इस आयोग ने फरवरी 1987 में अपनी रिपोर्ट सरकार को पेश कर दी थी। चूंकि इन दंगों में दिग्गज कांग्रेसी अपराधियों की भूमिका में थे, इसलिए रिपोर्ट में इन कांग्रेसियों को एक तरह से दोष-मुक्त करने का काम कर दिया था। इसी के प्रतिफल में उन्हें राज्यसभा पद से अलंकृत किया गया था।
कांग्रेस ने मुसलमानों को वोट बैंक मानते हुए इनकी आर्थिक व शैक्षिक स्थिति जानने के लिए रंगनाथ मिश्रा आयोग बनाया था। 2007 में जब यूपीए की सरकार में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब इस आयोग की रिपोर्ट आई। रिपोर्ट में आयोग ने सिफारिश की थी कि अल्पसंख्यकों को केंद्र व राज्य सरकार की नौकरियों एवं शैक्षिक संस्थाओं में 15 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए। इसमें भी 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी केवल मुसलमानों की हों। इसी तरह की सिफारिश सच्चर समिति की रिपोर्ट में की गई थी। लेकिन संविधान में धार्मिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं है, इसलिए मनमोहन सिंह सरकार इन रिपोर्टों पर अमल नहीं कर पाई थी।
सीजेआई बालकृष्णन जब सेवानिवृत्त हुए थे, तब उन्होंने अपने विदाई समारोह में कहा था कि सेवानिवृत्त होने के बाद न्यायाधीशों को कोई जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए और राजनीति से दूर रहना चाहिए। लेकिन अपने प्रभुत्व का इस्तेमाल कर जब वे 2009 में सेवानिवृत्त हुए तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बन गए। हालांकि इस नियुक्ति पर उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, मुझसे इस मामले में संपर्क नहीं किया गया। यदि यह नियुक्ति उनकी मंशा के विरुद्ध थी तो उन्हें पद को स्वीकार करने की जरूरत ही क्या थी ? जबकि यह पद एक साल से खाली पड़ा था। हालांकि संविधान में ऐसा प्रावधान है कि भारत की पूर्व न्यायाधीश इस आयोग के अध्यक्ष बन सकते हैं। बालकृष्णन देश के पहले दलित सीजेआई थे। उन्होंने 1968 में केरल में रहते हुए वकालात की और सीजेआई जैसे अहम् पद पर पहुंचे।
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह भी पहली बार हुआ था कि सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने पत्रकार वार्ता आयोजित कर अपना असंतोष सार्वजनिक किया था। आमतौर से ऐसा देखने में नहीं आया है कि न्यायालय के भीतर हुए किसी पक्षपातपूर्ण व्यवहार के परिप्रेक्ष्य में कुछ न्यायाधीशों को लोकतंत्र की रक्षा की गुहार लगाते हुए मीडिया को हथियार बनाने की जरूरत आन पड़ी हो ? न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी लोकुर और कुरियन जोसेफ ने सीधे-सीधे शीर्ष न्यायालय के तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा पर ऊंगली उठाई थी। इस मौके पर जज चेलमेश्वर ने कहा था कि हम चारों इस बात पर सहमत हैं कि इस संस्थान को बचाया नहीं गया तो देश का लोकतंत्र जिंदा नहीं रह पाएगा ? जबकि स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायापालिका भारतीय संवैघानिक व्यवस्था की रीढ़ है। लेकिन मंशाओं पर सवाल तो बार-बार उठाए जाते रहे हैं, सुधार के लिए आजादी के बाद से अब तक कोई ठोस पहल दिखाई नहीं दी है।
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