पंजाब में सांप्रदायिक हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही। एक धर्म विशेष से सबंधित नेताओं की हत्या से राज्य में दहशत का माहौल पैदा हो रहा है। अमृतसर में हिंदू संघर्ष सेना दल के जिलाध्यक्ष विपन कुमार की हत्या इस बात का स्पष्ट संकेत है कि पिछले साल आरएसएस के प्रदेशाध्यक्ष जगदीश गगनेजा की हत्या से कोई सबक नहीं लिया। पिछली अकाली-भाजपा सरकार और वर्तमान कांग्रेस सरकार दोनों सरकारें इस मामले में केवल बयानबाजी तक सीमित हैं। हिंसा के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ है, इस बयान से सरकार की जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती। अकाली-भाजपा सरकार के कार्यकाल में मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने विदेशी ताकतों का हाथ होना बताया था।
इस बयान के बाद सरकार ने राज्य में सुरक्षा प्रबंधों के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई। हिंसा की घटनाओं का सिलसिला निरंतर जारी है। इसके बाद नामचर्चा घर जगेड़ा (खन्ना) में डेरा सच्चा सौदा के दो श्रद्धालुओं की हत्या कर दी गई। एक साल बाद भी इन हत्याओं की गुत्थी नहीं सुलझी। पिछले महीने लुधियाना में आरएसएस के एक अन्य नेता की हत्या कर दी गई।हमलावरों ने सभी मामलों में एक ही तरीके का प्रयोग किया। चाहे हिंसा मामले में विदेशी ताकतों का हाथ होने की संभावना है लेकिन राजनैतिक नेताओं के केवल अंदाजे ही काफी नहीं। सरकार ने हिंसा को रोकने के लिए किसी भी प्रकार की कोई तैयारी या रणनीति का जिक्र ही नहीं किया। मृतक के परिजनों को केवल मुआवजा देना ही समस्या का समाधान नहीं।
राज्य सरकार को केंद्र के साथ मिलकर हिंसा को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए, लेकिन अभी तक कोई रणनीति व सक्रियता नजर नहीं आ रही। कानून व व्यवस्था में सरकार की कार्यवाही काफी हलकी रही है। लूटपाट की वारदातें आम बात बन चुकी है। इन हालातों में विदेशी ताकतों को मौका मिल जाता है। इससे पहले दीनानगर व पठानकोट में आतंकवादी हमले ने सुरक्षा प्रबंधों पर सवालिया निशान लगाया था। सत्तापक्ष के लिए राजनैतिक सरगर्मियां जरूरी है, लेकिन शांति बहाल करना सबसे पहली जिम्मेवारी है। सुरक्षा प्रबंधों पर विशेष ध्यान देना होगा।