आंदोलनों की भेंंट चढ़ती सार्वजनिक संपत्ति

Public property

-राजस्थान की राजधानी जयपुर में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में शांतिमार्च का आयोजन अपना पक्ष रखने का सशक्त और विरोध प्रदर्शनकतार्ओं को संदेश देता हुआ है। इसी तरह से न्यायालय द्वारा सुनवाई करने से पहले हिंसा बंद करके न्यायालय में आने का संदेश और हिंसा के दोषियों से नुकसान हुई संपत्ति की भरपाई के कदम निश्चित रुप से देश का दिशा देने वाले होंगे।

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी बात कहने और सरकार के किसी निर्णय के खिलाफ आवाज उठाना देश के प्रत्येक नागरिक को अधिकार है। इससे भी मतभेद नहीं हो सकता कि सरकार के किसी निर्णय का श्याम पक्ष भी हो सकता हैं। विरोध के माध्यम से उसके खिलाफ आवाज भी उठाई जा सकती है। पर प्रश्न यह उठता है कि विरोध का तरीका क्या हो? क्या विरोध प्रदर्शन को हिंसक बना देना उचित माना जा सकता है? देश में आंदोलन या प्रदर्शन होना एक बात है पर इन आंदोलनों और प्रदर्शनों को हिंसक बना देना किसी भी हालातों में उचित नहीं माना जा सकता है।

आखिर देश के किसी भी हिस्से में हिंसक आंदोलन से विरोध प्रदर्शनकर्ता मीडिया की सुर्खियों में तो आ जाते हैं पर हिंसा से होने वाली सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान और निर्दोष लोगों को परेशानी में ड़ालने यहां तक की जान ले लेने को किसी भी हालातों में सही नहीं कहा जा सकता है। हांलाकि यह समस्या आज की नहीं है और ना ही यह समस्या केवल और केवल हमारे देश की है अपितु गाहे-बेगाहे हिंसक आंदोलन अन्य देशों में होना भी आम है। पर सवाल यही उठता है कि जब गांधीजी अहिंसा का संदेश देते हुए देश को विदेशियों से मुक्त कराने में सफल हो जाते हैं तो गांधीजी के अहिंसक देश में विरोध प्रदर्शन को हिंसक बना देना कौनसा सही तरीका है।

राष्टÑीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों द्वारा 2017 के जारी आंकड़ों का ही विश्लेषण करे तो देश में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले एक दो नहीं बल्कि प्रतिदिन करीब 20 मामलें दर्ज हुए हैे। 2017 की ही बात की जाए तो देश भर में आठ हजार से ज्यादा मामलें इस तरह के सामने आए हैं। सवाल यह है कि बसें जलाना, रास्ते रोक देना, दुकानों-मकानों को नुकसान पहुंचाना, रेल जाम कर देना या भीड़ के लपेटे में आये निर्दोष की जान लेना कहां तक उचित कहा जा सकता है। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने से आखिर नुकसान किसका होता है। यह अपने आप में विचारणीय है। पानी की टंकियों पर चढ़ जाना या रास्ता जाम कर देना आम होता जा रहा है।

हालिया हिंसा के दौर में दो तीन मिसाल या यों कहें कि उठाए गए कदम इस मायने में अलग अर्थ रखते हैं कि इससे देश को दिशा देने का प्रयास किया गया है। राजस्थान की राजधानी जयपुर में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में शांतिमार्च का आयोजन अपना पक्ष रखने का सशक्त और विरोध प्रदर्शनकतार्ओं को संदेश देता हुआ है। इसी तरह से न्यायालय द्वारा सुनवाई करने से पहले हिंसा बंद करके न्यायालय में आने का संदेश और हिंसा के दोषियों से नुकसान हुई संपत्ति की भरपाई के कदम निश्चित रुप से देश का दिशा देने वाले होंगे। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने विरोध प्रदर्शन का तरीका शांति मार्च के रुप में अपनाया तो दूसरी और बात बात में न्यायालय में गुहार लगाने की प्रवृति पर हिंसक प्रदर्शन रोकने का संदेश निश्चित रुप से भविष्य के लिए दिशाबोधक है।

उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों की पहचान कर वसूली का कदम भले ही आलोचना का विषय हो सकता है पर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचानें और आए दिन जनजीवन अस्तव्यस्त करने वालों को रोक लगाने का साहसिक कदम माना जा सकता है। आखिर देश का आम नागरिक कब तक आंदोलनों के आगे लाचार होता रहेगा। भले ही बात कितनी भी गंभीर हो पर हिंसा उसका जबाव नहीं हो सकता। हांलाकि 2017 के सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान पहुंचाने के आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो साफ हो जाता है कि देश में सर्वाधिक इस तरह के मामलें हरियाणा, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडू के सामने आए हैं। इन प्रदेशों में हजारों की संख्या में इस तरह की घटनाएं साल के दौरान हुई हैं। यह अपने आप में गंभीर है।

देश के अधिकांश हिस्सों में विरोध प्रदर्शन के स्थान भी सरकार द्वारा चिन्हित है। किसी भी निर्णय के विरोध के लिए जगह तय होने के बावजूद आयोजकों द्वारा जनजीवन को अस्तव्यस्त करने का तरीका अपनाना निश्चित रुप से उचित नहीं माना जा सकता। दिल्ली में जंतर-मंतर तो जयपुर में अब मानसरोवर, पटना में हड़ताली चौक इसके उदाहरण मात्र है। आखिर चिन्हित स्थानों पर विरोध प्रदर्शन का संदेश भी सरकारों तक जाता है। हांलाकि यह कड़ा विकल्प हो सकता है, इससे मतभेद भी हो सकता है पर यदि किसी प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान होता है तो इसकी जिम्मेदारी आयोजकों पर भी तय होनी चाहिए ताकि आंदोलनों और प्रदर्शनों को हिंसक होने से रोका जा सके।

अन्यथा देश के आम नागरिकों के खून पसीने की कमाई से कर के रुप में प्राप्त राशि से तैयार सार्वजनिक संपदा की बरबादी कब तक सहन की जाती रहेगी। बदलते तकनीक के युग में यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के किसी भी एक कोने का एक दिन या यों कहें कि कुछ घंटों के लिए जाम कर देना या बंद कर देने मात्र से हजारों करोड़ का नुकसान देश को भुगतना पड़ता है। आखिर यह नुकसान किसका है।

हांलाकि सरकारों को भी जनता के विरोध को समझना होगा। सरकार को भी संवेदनशील होना होगा। पुलिस प्रशासन को भी आंदोलन को संवेदनशीलता से निपटानें की रणनीति बनानी होगी। क्योंकि बल प्रयोग एक बात है और शांति से निपटना अलग बात। ऐसे में प्रदर्शनकर्ता और प्रशासन की दोनों को अपनी जिम्मेदारी समझनी ही होगी, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। न्यायालयों और सरकारों की सख्ती से आशा की जानी चाहिए कि आने वाले समय में प्रदर्शनकारी सार्वजनिक हित और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने से परहेज करेंगे।

-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

 

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