01 जून से अगली 10 जून तक किसानों ने गांव बंद की घोषणा कर दी है, आखिर किसानों का गुस्सा फिर से फूट पड़ा है, मार्च मेंं भी किसान सड़कों पर उतरे थे। तक महाराष्टÑ व मध्यप्रदेश तक ही आन्दोलन सीमित रहा था। लेकिन अब पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व यूपी भी इसमें शामिल हो गया है। शुक्रवार को आन्दोलन का पहला दिन था, किसानों ने दूध व सब्जी की सप्लाई ही नहीं रोकी बल्कि अनाज बेचने से भी एक-दूसरे किसानों को रोका, अधिकतर किसान अब एकजुट नजर आ रहे हैं।
सोशल मीडिया के माध्यम से किसानों ने बंद को सफल बनाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। किसान आखिर करें भी तो क्या? किसान की फसल जब पककर बाजार में पहुंचती है कोई उसे खरीदना नहीं चाहता, ऐसा नहीं कि मांग नहीं बस दलाल किसान को परेशान कर फिर वही फसल कौड़ियों के भाव खरीद लेते हैं। किसान को डीजल, खाद, बीज, कीटनाशक हर चीज का मूल्य बहुत अधिक चुकाना पड़ रहा है। स्वामीनाथन आयोग ने किसानों की समस्याओं को बहुत ही गंभीरता से परखा है।
तब इस आयोग ने सिफ ारिश की है कि किसानों को लागत मूल्य पूरा कर पचास फीसदी मुनाफा दिया जाए जो कि नहीं हो रहा। किसान पर कर्ज दिन ब दिन बढ़ रहा है लेकिन राज्य व केन्द्र कोई सरकार इस कर्ज के बोझ को घटाने के लिए चिंतित नजर नहीं आ रही। दूसरी ओर कार्पोरेट घरानों को खुले हाथों से कर्ज बांटा जाता है, वसूली की भी फिक्र नहीं कोई बिना चुकाये भाग गया तब भी कोई कार्रवाई नहीं। टैक्स में छूट कच्चे माल में दी जा रही है।
उद्योगों का प्रदूषण भी किसानों को पीना पड़ रहा है, शहरी आबादी का पूरा मलमूत्र ग्रामीण क्षेत्रों में छोड़ा जा रहा है। कोई वाटर ट्रीटमेंट नहीं, शहरी सीवरेज पर कोई नियंत्रण नहीं ऐसे में अगर किसान अब लम्बा आंदोलन छेड़ रहा है तब इस सबके लिए सरकार व उसकी नीतियां जिम्मेवार हैं। पूरे देश का किसान अपनी फसलें भी बदल-बदल कर देख चुका है लेकिन वह व्यापारी के रहमोंकर्म पर ही निर्भर है। व्यापारी बाजार व कृषि में जब तक सरकार संतुलित नीतियां नहीं लाती तब तक यह संघर्ष बढ़ता ही जाना है। भारत 80 करोड़ किसानों का घर है यदि संघर्ष नहीं रोका गया तब यह देश के लिए बहुत घातक साबित होगा।