गत दिवस वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सरकारी संसाधनों को लीज पर देकर अगले चार वर्षों में छह लाख करोड़ रुपये जुटाने की घोषणा की है। नैशनल मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन (एनएमपी) नामक योजना सौ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की एक बृहद इन्फ्रास्ट्रचर योजना है, जिसको अभी 111 लाख करोड़ रुपये की बताया जा रहा है। दरअसल, केंद्र सरकार बहुत बड़े आंकड़ों के जरिये दुनिया को यह संकेत देना चाहती है कि भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर के स्तर पर कुछ वैसा ही घटित हो रहा है, जैसा 1930 के दशक में अमेरिका में हुआ था, या फिर पिछले तीसेक वर्षों में चीन में हुआ है। इसके लिए 100 करोड़ रुपये से ऊपर की 7320 ढांचागत परियोजनाओं को एक ही सूची में डाल दिया गया है और इनको अमल में उतारने का काम केंद्र सरकार (39 प्रतिशत), राज्य सरकारों (40 प्रतिशत) और प्राइवेट सेक्टर (21 प्रतिशत) को मिलकर करना है।
एनआईपी के लिए सरकारी धन एनएमपी के अलावा सरकारी खजाने और विनिवेश से आना है। इसमें सरकारी खजाने का भरना या खाली रहना अर्थव्यवस्था की गति और उससे होने वाले टैक्सेशन पर निर्भर करता है। अब लोगों में चर्चा इस बात की ज्यादा है कि सरकार इतने लंबे समय में खड़े किए गए महत्वपूर्ण संसाधनों को औने-पौने किसी को भी बेच देने पर आमादा है। विनिवेश के मामले में ऐसा हमने बार-बार होते देखा है। सबसे ज्यादा सड़कें (कुल संभावित रकम का 27 प्रतिशत), फिर रेलवे (25 प्रतिशत), बिजली (15 प्रतिशत), तेल और गैस पाइपलाइनें (8 प्रतिशत) और टेलिकॉम (6 प्रतिशत)। बचे 19 प्रतिशत में हवाई अड्डे, बंदरगाह, गोदाम और स्पोर्ट्स स्टेडियम वगैरह शामिल हैं। एक छोटा सा उदाहरण दिल्ली और नोएडा को जोड़ने वाले एक पुल का ले लें। इसे बनाने वाली कंपनी ने अपनी लागत और मुनाफा काफी पहले निकाल लिया, फिर नोएडा टोलब्रिज नाम से शेयर बाजारों में अपना रजिस्ट्रेशन भी करा लिया।
सड़क और पुल का मालिकाना सौंपने की बात यूपी सरकार की ओर से ही आ सकती थी, लेकिन कंपनी ने उसी को मैनेज कर लिया था। साल दर साल उसकी टोल वसूली चलती जा रही थी। हारकर कुछ नागरिक मामले को अदालत में ले गए तो वहां भी मुकदमा लंबा खिंचने लगा। फिर एक दिन फैसला आ गया कि कंपनी अपनी वसूली पूरी कर चुकी है, अब वह अपना टोल हटा ले। उसके बाद भी कुछ समय तक टोल चलता रहा। फिर लोगों ने जमा होकर उसे हटवाया तो बात बनी। सरकारें संसाधनों का मालिकाना अपने हाथ में बने रहने की बात जरूर करती हैं लेकिन यह एक हवा-हवाई मामला ही हुआ करता है। एक जमीन को 99 साल की लीज पर देने के बाद उस पर अपने मालिकाने की बात आप पांच पीढ़ी आगे के लिए कर रहे होते हैं, जब दुनिया कुछ की कुछ हो चुकी होगी। यहां सौदे को आकर्षक बनाने के लिए सरकार के पास अकेला रास्ता उसे सस्ते से सस्ता रखने का है।
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