राजनीतिक अपराधीकरण पर लगे अंकुश

Prohibition on political criminalization
भारतीय राजनीति में बढ़ता अपराधीकरण राजनीतिक संस्थाओं की कार्य प्रणाली एवं गुणवत्ता को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। आपराधिक पृष्ठभूमि भारतीय राजनीति में प्रवेश करने की अनिवार्य योग्यता हो गयी है। पिछले कुछ वर्षों से ‘अपराध का राजनीतिकरण’ और ‘राजनीति का अपराधीकरण’ के मुद्दे पर बहस तेज हुई है।
हाल में कानपुर मुठभेड़ में मारे गए गैंगस्टर विकास दुबे का सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी के नेताओं के साथ संबंध रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो विभिन्न राजनीतिक दलों के कुछ लोग चुनाव जीतने के लिए विकास दुबे जैसे अपराधियों का उपयोग करते हैं। विकास दुबे तो केवल एक नाम है, उस जैसे न जाने कितने माफिया और अपराधी हैं, जिनकी राजनीतिक दलों से सांठगांठ है। इसके अलावा गंभीर अपराधों वाले तमाम लोग न सिर्फ चुनाव लड़ते हैं, बल्कि जीतते भी हैं। अपराधियों का चुनाव प्रक्रिया में भाग लेना हमारी निर्वाचन व्यवस्था का एक नाजुक अंग बन गया है।
राजनीति के अपराधीकरण का अर्थ राजनीति में आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे लोगों और अपराधियों की बढ़ती भागीदारी से है। सामान्य अर्थों में यह शब्द आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का राजनेता और प्रतिनिधि के रूप में चुने जाने का द्योतक है। वर्ष 1993 में वोहरा समिति की रिपोर्ट और वर्ष 2002 में संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिये राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट ने पुष्टि की है कि भारतीय राजनीति में गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है। वर्तमान में ऐसी स्थिति बन गई है कि राजनीतिक दलों के मध्य इस बात की प्रतिस्पर्द्धा है कि किस दल में कितने उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, क्योंकि इससे उनके चुनाव जीतने की संभावना बढ़ जाती है।
उल्लेखनीय है कि 2004 में जहां 24 प्रतिशत आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसद थे, वह संख्या 2009 में 30 प्रतिशत और 2014 में बढ़कर 34 प्रतिशत हो गई। उदहारण के लिये 2004 में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या 128 थी जो वर्ष 2009 में 162 और 2014 में यह संख्या 184 हो गई। आपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं को संसदीय लोकतंत्र से दूर रखने की जिम्मेदारी संसद की है, मगर वास्तविकता यह है कि राजनीतिक दलों पर इनकी पकड़ इतनी मजबूत है कि उनके बिना सत्ता और चुनाव की राजनीति संभव नहीं। भारत में राजनीति अब समाज सेवा का मंच न होकर मोटी कमाई वाला व्यवसाय बनकर रह गई है। राजनीति में अपराधियों की बढ़ती सफलता एवं वर्चस्व युवाओं को अपराधिक गतिविधियों में सम्मिलित होने का प्रलोभन प्रदान कर रही है। बाहुबलियों को चुनाव में उतारना, जीत की गारंटी मानी जाती है।
ये भी सच्चाई है कि मतदाता सब कुछ जानते हुए भी आपराधिक छवि वाले नेताओं को भारी मतों से जीत दिलवा रहे हैं। क्योंकि जातिवाद व धन प्रलोभन के आगे भारतीय मतदाता असहाय व कमजोर हैं। राजनीति का व्यावसायीकरण ही अपराधीकरण की अहम जड़ है। व्यावसायीकरण ने लोकतंत्र के मंदिर को मछली बाजार बना दिया है। जनहित के जगह स्वहित को प्रमुखता दी जाने लगी है। राजनीतिक व्यापारीकरण ने नोट के बदले वोट की घृणित प्रथा कायम कर दी है। भारतीय मतदाता किंकर्तव्यविमूढ़ है। उनका स्वविवेक मर चुका है। यह दुर्दशा भारतीय लोकतंत्र व विकास के लिए दिनोंदिन घातक होती जा रही है। राजनीति में धर्माचार्यों का हस्तक्षेप और राजनेताओं द्वारा चुनाव की राजनीति में धर्म का इस्तेमाल भी बढ़ता गया है। परिणामस्वरूप अशिक्षित, निर्धन, दलित और असहाय आम जनता का हर तरह से शोषण और उत्पीड़न लगातार बढ़ता जा रहा है।
अत: देश की राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के लिए अपराधी राजनेताओं का राजनीति में भाग लेने पर संपूर्ण प्रतिबंध लगाना बहुत जरूरी है। इलेक्शन के अलावा दल के संगठन में समावेश करने पर भी प्रतिबंध होना चाहिए। अपराध का पोषण करने वाले ऐसे राजनीतिक दलों की मान्यता को खत्म करना ही इस समस्या पर सबसे कारगर उपाय साबित हो सकता है। साथ ही, सरकार और चुनाव विश्लेषकों को मिलकर ‘बहुमत के विरोधाभास’ को दूर करने का उपाय तलाशना होगा। इसके के लिए सूची प्रणाली, द्विध्रुवीय राजनीतिक व्यवस्था का उदय आदि विकल्पों पर विचार करना होगा ताकि इस विरोधाभास को दूर किया जा सके। राजनीतिज्ञों के आपराधिक मामलों के शीघ्र निपटाने के दो तरीके हो सकते हैं। एक तो इनके अभियोक्ता ऐसे चुने जाएं, जो किसी राजनैतिक दल से संबंद्ध न हों।
एक अभियोजन निदेशालय की स्थापना की जाए, जिसका प्रमुख कोई सेवानिवृत्त न्यायाधीश हो। ऐसा देखा गया है कि ट्रायल के दौरान राजनेता अंतरिम आदेशों का सहारा लेकर बार-बार ट्रायल में अवरोध पैदा करते हैं। ऐसी स्थिति में उच्च एवं उच्चतम न्यायालय भी असहाय हो जाते हैं। इसे रोकने की कोशिश करनी होगी। अगर मुख्य न्यायाधीश मिशन को पूरा करने की ठान लेंगे, तो वे रास्ता निकाल ही लेंगे। इस समस्त प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिए बुनियादी ढांचे और स्टाफ की जरूरत होगी। इसके लिए धन चाहिए। जो सरकार बैंक बैंलेंस शीट की सफाई के लिए 2.11 लाख करोड़ रुपए लगा सकती है, वह राजनीति की बैलेंसशीट की सफाई के लिए भी धन लगा सकती है। अगर ऐसा नहीं हो पाता, तो सरकार को एक ‘स्वच्छ राजनीति भारत बॉन्ड’ नामक कोष बना देना चाहिए। उम्मीद है कि देश के जागरूक नागरिक राजनीति की स्वच्छता के लिए इसमें खुलकर दान करेंगे।
राजनीति में अपराधियों की बढ़ी संख्या पर यदि संसद भी रोक न लगा सकी, अर्थात इस विषय पर कोई कानून न बना सकी तो राजनीतिक दल ऐसे लोगों को अपनी पार्टी से टिकट ही न दें ऐसी संभावना कम ही है। अत: देश की राजनीति में अपराधियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि संसद ऐसा कानून लाए कि अपराधी राजनीति से दूर रहें। जन प्रतिनिधि के रूप में चुने जाने वाले लोग अपराध की राजनीति से ऊपर हों। राष्ट्र को संसद द्वारा कानून बनाए जाने का इंतजार है। भारत की दूषित हो चुकी राजनीति को साफ करने के लिये बड़ा प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।

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