भारतीय समाज में बेटा-बेटी में फर्क करने की मानसिकता में बदलाव लाने और लड़कियों की दशा और दिशा सुधारने के लिए पिछले कुछ वर्षों से सरकारी स्तर पर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे कई महत्वपूर्ण अभियान चलाए जाने के बावजूद हाल ही में ‘नीति आयोग’ की जो चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है, वह बेहद चिंताजनक है। ‘हैल्दी स्टेट्स एंड प्रोग्रेसिव इंडिया’ (स्वस्थ राज्य और प्रगतिशील भारत) नामक इस रिपोर्ट के अनुसार देश के 21 बड़े राज्यों में से 17 में लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की गई है।
जन्म के समय लिंगानुपात मामले में 10 या उससे अधिक अंकों की गिरावट वाले राज्यों में प्रधानमंत्री के गृह राज्य ‘गुजरात’ की हालत सबसे खराब है, जहां लिंगानुपात 53 अंकों की गिरावट के साथ 907 से घटकर महज 854 रह गया है। कन्या भ्रूण हत्या के लिए पहले से ही बदनाम हरियाणा लिंगानुपात मामले में 35 अंकों की गिरावट के साथ दूसरे स्थान पर है जबकि राजस्थान में 32, उत्तराखण्ड 27, महाराष्ट्र 18, हिमाचल प्रदेश 14, छत्तीसगढ़ 12 और कर्नाटक में 11 अंकों की गिरावट दर्ज की गई है।
हालांकि पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार में लिंगानुपात में क्रमश: 19, 10 व 9 अंकों का सुधार हुआ है, जो आशाजनक तो है किन्तु यह स्थिति भी ऐसी नहीं है, जिसे लेकर हम ज्यादा उत्साहित हो सकें क्योंकि लिंगानुपात में मामूली सुधार के बावजूद इन राज्यों की स्थिति भी इस मामले में कोई बहुत बेहतर नहीं है। नीति आयोग के अनुसार उत्तर प्रदेश में अभी भी प्रति 1000 पुरूषों पर महिलाओं की संख्या मात्र 879 है जबकि बिहार में यह संख्या 916 है।
वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा शुरू से ही ‘कन्या भ्रूण हत्या’ को निरूत्साहित करने के लिए जिस तरह की योजनाओं को अमलीजामा पहनाया जाता रहा है, उसके बावजूद लिंगानुपात के बिगड़ते संतुलन की इस तरह की रिपोर्ट सामने आना वाकई हमारे लिए गंभीर चुनौती है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘लाडली बेटी योजना’, ‘सुकन्या समृद्धि योजना’ सरीखी सरकारी योजनाओं के अलावा विशेष रूप से मीडिया द्वारा चलाया गया कैंपेन ‘सेल्फी विद डॉटर’ नारी सशक्तिकरण की दिशा में बहुत अच्छे प्रयास किए गए किन्तु हालिया रिपोर्ट को देखें तो इन महत्वाकांक्षी योजनाओं के परिणाम आशाजनक नहीं रहे।
ऐसे में यह गंभीर सवाल उठ खड़ा जाता है कि आखिर हमारे प्रयासों में कहां कमी रह गई?दरअसल हम आज भले ही 21वीं सदी में जी रहे हैं किन्तु हमारी रूढ़िवादी मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है। लिंग परीक्षण को लेकर देश में कड़े कानूनों के बावजूद आज भी अधिकांश लोग बेटे की ख्वाहिश के चलते लिंग परीक्षण का सहारा ले रहे हैं, जिससे कन्या भ्रूण हत्याएं जारी हैं या फिर बेटे की चाह में ज्यादा बच्चों को जन्म दे रहे हैं, जिससे अनचाही लड़कियों की संख्या बढ़ रही है।
इकोनॉमिक सर्वे 2017-18 की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि देश में इस दौरान 2.1 करोड़ अनचाही लड़कियों का जन्म हुआ है। एक अन्य रिपोर्ट में यह भी उजागर हुआ है कि पिछले कई वर्षों से प्रतिवर्ष देश में 3 से 7 लाख कन्या भ्रूण नष्ट कर दिए जाते रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप देश में महिलाओं की संख्या पुरूषों की तुलना में करीब पांच करोड़ कम है। विड़म्बना ही है कि नारी को या तो जन्म लेने से पहले ही कन्या भ्रूण हत्या के रूप में समाप्त करने के प्रयास होते हैं या फिर उसे दहेज की बलिवेदी पर जिंदा जला डालने की कुत्सित कोशिशें।
यह अजीब विड़म्बना है कि एक ओर जहां हिन्दुओं में लड़की को ‘घर की लक्ष्मी’ अथवा ‘देवी’, वहीं मुस्लिमों में बेटियों को ‘नेमत’ माना गया है, उसके बाद भी लड़कियों के साथ जिस तरह का दोयम व्यवहार किया जा रहा है, वह न केवल हमारी खोखली और विकलांग सामाजिक मानसिकता का परिचायक है, वहीं हमारी कथित आधुनिकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त है। आधुनिक युग में भी हमारी विकलांग मानसिकता का अनुमान इस उदाहरण से सहजता से लगाया जा सकता है। हाल ही में राजस्थान के करौली जिले में एक 83 वर्षीय बुजुर्ग सुखराम बैरवा ने अपनी पत्नी की सहमति से अपने से 53 वर्ष छोटी युवती रमेशी बैरवा से सिर्फ इसलिए शादी की ताकि उसे पुत्र की प्राप्ति हो सके क्योंकि उसे अपनी पहली पत्नी से पुत्र प्राप्त नहीं हुआ था।
हालांकि पहले माना जाता था कि लिंगानुपात के बढ़ते असंतुलन का बड़ा कारण समाज में अशिक्षा और अंधविश्वास है और इसी कारण लड़के-लड़कियों में भेदभाव किया जाता रहा है किन्तु आज शिक्षित समाज में भी इस समस्या का निदान होने के बजाय यह समस्या नासूर की भांति फैल रही है बल्कि जिस प्रकार हालिया रिपोर्ट में देखा गया है कि देश के न्यूनतम साक्षर राज्य बिहार में लिंगानुपात की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है और शिक्षित राज्यों में हालत बिगड़ी है, यह बेहद चिंताजनक स्थिति है।
देश में जहां वर्ष 1950 में लैंगिक अनुपात 970 के करीब था, वह वर्ष 2011 की जनगणना में 939 रह गया था। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने भी लैंगिक अनुपात में आई गिरावट को लेकर चिंता जताते हुए इसका कारण जानना चाहा था। एक सरकारी अध्ययन में तो यह भी सामने आया है कि अगर यही हालात रहे तो वर्ष 2031 तक प्रति 1000 लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या सिर्फ 898 रह जाएगी। लिंगानुपात के बढ़ते असंतुलन के खतरनाक परिणामों का आभास इसी से हो जाता है कि आज कुछ जगहों पर लोग बेटों की शादी के लिए दूसरे राज्यों से गरीब परिवारों की लड़कियों को खरीदकर लाने लगे हैं। ‘कन्या भ्रूण हत्या’ के लिए बदनाम हरियाणा जैसे राज्य में तो ‘मोलकी’ नामक यह प्रथा कुछ ज्यादा ही प्रचलित हो रही है।
दूसरी ओर लड़कों के विवाह के लिए लड़कियों के अपहरण की घटनाएं भी जिस तेजी से बढ़ रही हैं, उससे हमारा सामाजिक ताना-बाना बुरी तरह छिन्न-भिन्न हो रहा है। हाल ही में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2016 की एक रिपोर्ट में यह तथ्य उजागर हुआ है कि देशभर में कुल 66225 लड़कियों का अपहरण हुआ, जिनमें से 33855 लड़कियों का अपहरण सिर्फ शादी के लिए ही किया गया।
नीति आयोग की रिपोर्ट में ‘पूर्व गभार्धान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 1994’ (पीसीपीएनडीटी) को लागू करने तथा लड़कियों के महत्व के बारे में प्रचार करने के लिए जरूरी कदम उठाने की जरूरत पर बल दिया गया है और राज्यों से लिंग चयन कर गर्भपात की प्रवृत्ति पर कड़ाई से अंकुश लगाने का आग्रह किया गया है। हालांकि यह सुखद बात है कि हमारे समाज के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है बल्कि कई क्षेत्रों में लड़कियां लड़कों से कहीं आगे हैं लेकिन लैंगिक असमानता को लेकर जब तक लोगों की मानसिकता में अपेक्षित बदलाव नहीं आता, हालात में सुधार की उम्मीद बेमानी होगी।
जहां तक लोगों की मानसिकता में बदलाव लाने की बात है तो नारी सशक्तिकरण और बेटियों को गरिमामयी जीवन देने के लिए सरकार द्वारा कई बेहतरीन योजनाएं तो चलाई जा रही हैं लेकिन यहां यह ध्यान रखना होगा कि कहीं ऐसा न हो कि विभिन्न सरकारी योजनाएं सरकारी फाइलों या विभिन्न मंचों पर सरकारी प्रतिनिधियों द्वारा फोटो खिंचवाने की प्रथा तक ही सीमित होकर रह जाएं। इसके लिए युद्धस्तर पर जनजागरण अभियान की भी महत्ती आवश्यकता है।
योगेश कुमार गोयल