यगुजरात के साबरमती आश्रम में हुई कांग्रेस कार्य समिति की मीटिंग में कांग्रेस में एक नयी उम्मीद दिखी। पार्टी ने गांधी को याद करते हुए नया संकल्प लिया। सम्मेलन की खास वजह प्रियंका गांधी रही जिन्होंने नयी जिम्मेदारी मिलने के बाद सधे हुए अंदाज में जमींनी मसले उठाकर एक अलग तरह का विचार रखा। यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी से इस तरह की उम्मीद राजनीतिक विश्लेषक नहीं कर सकते थे, लेकिन उन्होंने बेहतर विचार रख अपनी क्षमता की तस्वीर को साफ कर दिया। उनकी राजनीतिक शैली राहुल गांधी से काफी अलग दिखी। सात मिनट के भाषण में कहीं से भी तल्खी नजर नहीं आयी। शब्दों की मिठास में लोगों के सरोकार से जुड़े मसलों को अहमियत दी। सीडब्लूसी में प्रियंका ने अपने को पार्टी कार्यकतार्ओं से अलग थलग नहीं रखा। मां सोनिया गांधी और भाई राहुल से हटकर कार्यकतार्ओं के बीच अधिक समय जाया किया।
गांधी आश्रम से उन्होंने बेहद नपे तुले शब्दों में पीएम नरेंद्र मोदी का नाम लिए बगैर सीधा निशाना साधा। राहुल गांधी की परंपरा बन गए चौकीदार चोर है और राफेल का मसला छुआ तक नहीं। उन्होंने साफ कहा कि अभी आपके सामने बहुत बातें होंगी लेकिन आप को सावधान रहने की जरुरत है।साबरमती आश्रम से प्रियंका गांधी ने भीड़ को संबोधित करते हुए साफ तौर पर कहा कि यह चुनाव आपका भविष्य और देश की दिशा तय करेगा। आप सरकार से सवाल पूछिए। अपने मताधिकार का प्रयोग सोच समझ कर कीजिए। चुनाव में फालतू मसले नहीं उठने चाहिए। आम आदमी के सरोकार से जुड़े जमींनी मुद्दे होने चाहिए। देश में बेगारी, किसान, महिला सुरक्षा के साथ अन्य मुद्दे शामिल होने चाहिए। निश्चित रुप से साबरमती आश्रम से उन्होंने बड़ी बात रखी। लेकिन 17 वीं लोकसभा के महासमर से जमींनी सवाल गायब हैं। टीवी डिबेट का रुख बेहद केंद्रीय हो चला है। मीडिया की भूमिका सुनिश्चित विचारधारा की तरफ बढ़ती दिखती है। चुनावी फैसले आने से पूर्व ही चैनलों पर सरकारें बना दी जा रही हैं।
एंकर पत्रकार की भूमिका में कम पार्टी प्रवक्ता में अधिक दिखते हैं। बस अगर दिखती है तो गला फाड़ कर स्पर्धा। लोकतांत्रिक व्यव्स्था में अभिव्यक्ति का यह सबसे वीभत्स चेहरा है। यह वजह है कि राजनीति और मीडिया से वैचारिक मुद्दे गायब हैं। बेकार की बहसों को दिखाया जा रहा है। जनता का ध्यान मुख्य मसलों से भटकाया जा रहा है।सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों में सिर्फ सत्ता की होड़मची है। जाति, धर्म की बात कर वोटरों को भावनात्मक मसलों से जोड़ा जा रहा है। चुनाव में युवा वोटरों की संख्या सबसे अधिक है। आठ करोड़ से अधिक नए मतदाता जुड़े हैं। लेकिन युवाओं की बात राजनीतिक दलों के एजेंडे से गायब है। भारत में बेरोजगारी का ग्राफ दुनिया में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है। युवा रोजी-रोटी की तलाश में निराश हैं। शहरों में पशुओं को चराने के लिए शिक्षित युवाओं के उपयोग का सरकारें बेशर्म प्लान तैयार कर रही हैं।
युवाओं के लिए रोजगार की बात उठाने के बजाय पकौड़े की राजनीति की जा रही है। महिलाओं की सुरक्षा, भुखमरी, प्रतिभाओं का पलायन, किसानों की आत्महत्याएं और बीमार उद्योग, स्वास्थ्य सुविधाएं, दिमागी बुखार से मौतें मसला नहीं बन रहीं। चुनाव भारत में हो रहा है लेकिन इसकी गूंज पाकिस्तान में है। यहां के नेताओं की स्पीच को पाकिस्तानी मीडिया अपनी डिबेट का हिस्सा बना रहा है। जरा सोचिए इससे बड़ी शर्म की बात हमारी राजनीति के लिए और क्या हो सकती है। कोई सेना के शौर्य पर राजनीति कर रहा है तो कोई आतंकियों के लिए जी जैसी आदर्श शब्दावली का उपयोग करता दिखता है। सेना की वर्दी पहन प्रचार किया जा रहा है। राजनीतिक इस्तहारों में सेना का उपयोग किया जा रहा। पुलवामा, अभिनंदन और एयर स्ट्राइक को राजनीति का हिस्सा बना दिया गया है। राष्टÑवाद की आड़ में अवाम को भावनात्मक रुप से प्रभावित करने की कोशिश हो रही है। जबकि 1965 में पूर्व पीएम लालबहादुर शास्त्री ने चीन के खिलाफ युद्ध लड़ा। इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कराये।
इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भी पोखरण परीक्षण किया। उन्हीं ने पंजाब से आतंकवाद का सफाया किया। वह खुद आतंकवाद का शिकार बनीं। क्या यह उपलब्धियां नहीं थीं? यह क्या एयर और सर्जिकल स्टाइक से कम हैं? कांग्रेस राज में इसकी किसी को भनक तक नहीं लगी। क्योंकि यह सुरक्षा और सेना से जुटे मसले हैं। जिसका अधिकार सिर्फ सेना को है। लेकिन अब उसकी उपलब्धियों का राजनीतिक इस्तेमाल भी होने लगा है। बदली भूमिका में आज की सेना का शौर्य भी राजनीति का विषय बन गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनमत एक संवैधानिक और स्वस्थ परंपरा है। दुनिया में जहां भी यह स्वस्थ अधिकार कायम हैं, वहां लोकतंत्र बेहद मजबूत और सुदृढ़ है। वैचारिक रुप से स्वस्थ लोकतंत्र में अच्छे विचारों का विशेष महत्व है। आम चुनाव में सरकारों के कामकाज का विश्लेषण भी होता है। लोग अपनी पसंद की सरकार के लिए मतदान करते हैं। भारत दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र है। देश की जनता 17 वीं लोकसभा का चुनाव करने जा रही है। लेकिन तथ्यहींन और भावनात्मक मुद्दे उठाकर वोट हासिल करने में राजनैतिक दल जुटे हैं। भारत के आम चुनाव में पाकिस्तान और आतंकवाद छाया है। भाजपा जहां राष्टÑवाद जैसे भावनात्मक मसले उठाकर वोट बैंक को मजबूत करना चाहती है।
वहीं कांग्रेस राफेल, किसान, आतंकी सम्मान में जी लगा महासमर फतह करना चाहती है। सोशल मीडिया चुनावों में बेहद अहम भूमिका निभाने जा रहा है। दलीय समर्थक सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर पूरी तरह सक्रिय हो गए हैं। सभी राजनैतिक दल और राजनेता इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। पीएम मोदी अब खुद ब्लाग पर आ गए हैं। सोशल मीडिया पर निष्पक्ष और तार्किक बहस के बजाय केंद्रीय विचारधारा का युद्ध चल रहा है। राजनीति से जुड़े दल एक दूसरे को कोसने में लगे हैं। जिसकी वजह से लोकतंत्र में वौचारिकता का सीधा अभाव दिखता है। लोकतंत्र में चुनाव अहम होते हैं। जनता सरकारों का चुनाव करती हंै। लेकिन आज की राजनीति में राजनीतिक दल अपना दृष्टिकोण रखने के बजाय एक दूसरे के कपड़े उतारने में लगे हैं। किसी भी राजनीतिक दल के पास देश की वर्तमान समस्या का कोई हल नहीं दिखता है। बेगारी दूर करने के लिए किसके पास क्या नीतियां है? कश्मीर पर उनके पास क्या सुझाव है? सेना की शहादत पर विराम कैसे लगाया जाए? नक्सलवाद की समस्या का जमींनी हल क्या होगा।
प्रभुनाथ शुक्ल
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