देश के इन दिनों निजीकरण की खूब चर्चाएं हो रही हैं। इसमें बैंकिंग सेक्टर भी शुमार है। केंद्र सरकार आईडीबीआई सहित वह दो अन्य सरकारी बैंकों का निजीकरण करने जा रही है। हालांकि, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भरोसा दिया है कि निजीकरण के बावजूद बैंक कर्मचारियों के हितों को अनदेखा नहीं किया जाएगा। उनकी सैलरी व अन्य सुविधाओं को ध्यान में रखा जाएगा। मगर अतीत की घटनाओं के मद्देनजर बैंक कर्मचारियों को विश्वास नहीं हो रहा। अपने देश में सबसे पहले भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण 1949 में हुआ था, जिसके बाद 1955 में स्टेट बैंक आॅफ इंडिया का हुआ। इंदिरा गांधी ने 19 जुलाई 1969 को जब एक ही झटके में देश के 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था, तो उसका एक खास मकसद था।
ये बैंक उस समय देश के कुल कर्ज वितरण में 85 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखते थे, लेकिन सरकार को लग रहा था कि यह सारा कर्ज केवल बड़े कारोबारी घरानों को जा रहा था और प्राथमिक क्षेत्र पूंजी से वंचित रह जा रहे थे। सन 2005 के आसपास जाने-माने अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन ने 2001 के आंकड़ों के हवाले से यह बताया था कि अमेरिका में जितनी गैर-बराबरी 1920 के दशक में थी, उससे कहीं ज्यादा 2000 के दशक में दिखने लगी है। बैंकों के निजीकरण से भी कुछ ऐसे ही खतरे हैं। यह सही है कि अभी सरकार के पास संसाधनों का अभाव है, इसलिए राजस्व जुटाने के लिए उसने निजीकरण का सहारा लिया है। मगर इससे देश की आर्थिक तस्वीर कहीं ज्यादा स्याह हो सकती है। भारत एक ऐसा राष्ट्र है, जहां गरीबी पसरी हुई है। यहां की करीब 90 फीसदी आबादी गरीब है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ही इन सबकी सुध लेते हैं। इसी कारण गांवों और कस्बों तक में सरकारी बैंकों की शाखाएं दिख जाती हैं।
चूंकि निजी बैंक सामाजिक जवाबदेही से कन्नी काटते हैं, इसलिए वे वहीं अपनी शाखा खोलते हैं, जहां पर उनको फायदा नजर आता है। शायद बैंक कर्मचारियों का डर है कि निजी होते ही बैंकों से नौकरियां जानी शुरू हो जाएंगी, क्योंकि निजी बैंकों को सामाजिक जिम्मेदारियों से जुड़े कर्मचारियों की शायद ही दरकार होगी। उनका यह डर बिल्कुल वाजिब है, क्योंकि ऐसा पहले होता रहा है कि बैंकों के विलय के बाद भी कुछ कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया जाता रहा है। दुनिया भर में जहां-जहां विलय या निजीकरण हुए हैं, वहां रोजगार कम हुए हैं। यही कारण है कि सरकार पर निजीकरण के बहाने छंटनी की जमीन तैयार करने का आरोप बैंककर्मी लगा रहे हैं।
अभी भी देश का एक तबका निजीकरण को हर मर्ज की दवा समझता है, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। कई निजी बैंक डूब चुके हैं। ताजा मामला यस बैंक और पीएमसी का है। कोरोना काल में निजी और सरकारी बैंकों ने कैसा प्रदर्शन किया है, यह किसी से छुपा नहीं है? सरकारी बैंकों के विनिवेश से कुछ हजार करोड़ जरूर मिल सकते हैं, लेकिन उससे सरकार को कितना फायदा होगा का भी आकलन करने की जरूरत है। फायदा नकदी में हो, यह जरूरी नहीं है। सवाल रोजगार जाने का और बचे हुए सरकारी बैंकों पर काम का दबाव बढ़ने का भी है।
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