पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी और डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट के मुद्दे को लेकर बीते 10 सितम्बर को कांग्रेस पार्टी ने जो राष्ट्रव्यापी बंद बुलाया था, छुट-पुट हिंसक घटनाओं को यदि छोड़ दें, तो वह पूरी तरह से कामयाब रहा। भारत बंद का 22 राजनीतिक दलों ने समर्थन किया। जिन पार्टियों ने इस बंद का समर्थन किया उसमें समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, द्रमुक, राष्ट्रीय जनता दल, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जद (एस), आम आदमी पार्टी, तेलुगू देशम पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, झारखंड मुक्ति मोर्चा, नेशनल कांफ्रेंस, झारखंड विकास मोर्चा-प्रजातांत्रिक, एआईयूडीएफ, केरल कांग्रेस, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, आईयूएमएल और लोकतांत्रिक जनता दल आदि शामिल हैं। विपक्षी पार्टियों के इस देशव्यापी विरोध-प्रदर्शन से मोदी सरकार कुछ सबक लेती, इसके उलट वह देशवासियों को यह समझाने की कोशिश कर रही है कि एनडीए सरकार के बनिस्बत यूपीए सरकार के समय तेल के दाम ज्यादा बढ़े थे। केन्द्रीय मंत्री और बीजेपी प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद कह रहे हैं कि पेट्रोल डीजल का दाम बढ़ना, हमारे हाथ के बाहर है। अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों की वजह से बाजार में कच्चे तेल के भाव चढ़ रहे हैं। वहीं वित्त मंत्री अरुण जेटली, बैंकों को हजारों करोड़ रूपए के घाटे से उबारने के लिए वित्तीय समर्थन का वादा करते हैं, लेकिन उन्हें इस बात की जरा सी भी परवाह नहीं कि यदि पेट्रोल-डीजल के दाम और बढ़े, तो वो देशवासियों को कैसे इस संकट से उबारेंगे ? महंगाई पर किस तरह से नियंत्रण करेंगे ?
विपक्ष में रहते हुए नरेन्द्र मोदी, पूरे देश में पेट्रोल, डीजल और गैस की बढ़ती कीमतों पर खूब गरजते-बरसते थे, लेकिन जब से वे प्रधानमंत्री बने हैं, उनके मुंह से इस मसले पर एक शब्द भी नहीं निकलता। उन्होंने इस मुद्दे पर जैसे चुप्पी साध ली है। देश में पेट्रोल के दाम आसमान छू रहे हैं। आलम यह है कि महाराष्ट्र के परभणी में पेट्रोल 89.97 रुपया प्रति लीटर हो गया है, तो बिहार के सहरसा जिले में 88 रुपये 12 पैसे प्रति लीटर है। मुंबई वाले 88 रुपये 12 पैसे लीटर पेट्रोल खरीद रहे हैं, तो दिल्ली में अब पेट्रोल 80 रुपये 73 पैसे का हो गया है। एक तरफ पेट्रोल, डीजल और गैस के दाम बढ़ रहे हैं, तो दूसरी ओर रुपया इस साल के नौंवे महीने में 12 फीसदी नीचे गिर चुका है और गिरता ही जा रहा है। यह बात सच है कि भारत अपनी जरूरत का 80 फीसदी कच्चा तेल आयात करता है, जिसका भुगतान डॉलर में करना पड़ता है। कच्चे तेल की कीमतों में प्रति बैरल एक डॉलर की वृद्धि पर देश का आयात खर्च सीधे-सीधे 9,126 करोड़ रुपये बढ़ जाता है। जाहिर है कि जब यह वृद्धि होती है, तो सामान्य महंगाई का दवाब भी बढ़ता है। पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इस साल जनवरी से सितम्बर तक अनेक बार वृद्धि की जा चुकी है। इस वृद्धि से पेट्रोल पर कुल मिलाकर 10.36 रुपये प्रति लीटर और डीजल में 13.13 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी हुई है। यह कोई छोटी-मोटी बढ़ोतरी नहीं है। तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से महंगाई पर क्या असर पड़ता है, इसे इस तरह से जाना जा सकता है कि पेट्रोल की कीमत में प्रति लीटर एक रुपए की वृद्धि से थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति में 0.02 फीसद और डीजल के भाव में इतनी ही बढ़ोतरी से 0.07 फीसद की बढ़ोतरी होती है। समझा जा सकता है कि बीते नौ महीने में पेट्रोल-डीजल की कीमतें दस रुपए से ज्यादा बढ़ने से, देश के अंदर कितनी महंगाई बढ़ी होगी।
सरकार ने जब जून 2010 में डीजल और अक्टूबर 2014 में पेट्रोल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने का फैसला किया, तो उसका मकसद यह था कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल जिस भाव पर होगा, उसी के मुताबिक देश में पेट्रोल-डीजल महंगा या सस्ता मिलेगा। सरकार ने यह फैसला भी आम आदमी को राहत देने के लिए नहीं, बल्कि तेल कंपनियों को लगातार बढ़ते घाटे से निजात दिलाने के लिए किया था। सरकार के इस फैसले से आगे चलकर तेल कंपनियां तो जरूर घाटे से उबरीं, लेकिन आम आदमी को इसका फायदा नहीं मिला। कच्चे तेल की कीमतें जब भी बढ़ीं, सरकार ने तुरंत उसी अनुपात में पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ा दीं, पर जब ये कीमतें घटीं तो उसी अनुपात में यह कम नहीं हुई। मोदी सरकार ने इसका फायदा उपभोक्ताओं को देने के बजाय अपनी जेब भरना ज्यादा मुनासिब समझा। 26 मई, 2014 को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केन्द्र में सत्ता में संभाली, तो उस वक्त इंडियन बास्केट में क्रूड यानी कच्चे तेल की कीमत 106.85 डॉलर प्रति बैरल थी। उस वक्त दिल्ली में पेट्रोल 71.41 रुपये और डीजल 57.28 रुपये प्रति लीटर मिल रहा था। अर्थव्यवस्था में मंदी के दौर और तेल की खपत कम होने की वजह से अगले दो साल तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट आई। यहां तक कि 25 जनवरी, 2016 को इंडियन बास्केट में क्रूड की कीमत अपने सबसे निचले स्तर 26.87 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई थी। जाहिर है कि यदि इसी अनुपात में देश के अंदर पेट्रोल-डीजल की कीमतें डीरेग्युलेट की जातीं, तो उपभोक्ताओं को इसका बहुत फायदा मिलता। लेकिन मोदी सरकार ने राजकोषीय घाटा कम करने के नाम पर उपभोक्ताओं को नाम मात्र का फायदा दिया। उस वक्त राजधानी दिल्ली में पेट्रोल 59.99 रुपये और डीजल 44.71 रुपये प्रति लीटर बिका। क्रूड में 75 फीसदी की भारी गिरावट के बावजूद पेट्रोल 16 फीसदी और डीजल 22 फीसदी ही सस्ता हुआ। उपभोक्ताओं की जेब से निकली रकम का बड़ा हिस्सा सरकारी खजाने में पहुंचता रहा।
क्रूड के दामों में लगातार गिरावट के बीच मोदी सरकार ने हकीकत यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से ज्यादा पेट्रोल, डीजल के बढ़े हुए दामों के पीछे केंद्र और राज्य सरकार के करों का योगदान है और कोई भी सरकार इन्हें कम करने को तैयार नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र की रिफाइनरियों में पेट्रोल की लागत करीब 40 और डीजल की 43 रुपए प्रति लीटर आती है। केंद्र सरकार फिलहाल पेट्रोल पर 19.48 रुपए, जबकि डीजल पर 15.33 रुपए प्रति लीटर उत्पाद शुल्क वसूल रही है। इसके ऊपर राज्य सरकारें विभिन्न प्रकार के स्थानीय कर लगाती हैं। इस वजह से घरेलू बाजार में पेट्रोल व डीजल के दाम रिकार्ड ऊंचाई पर बने हुए हैं। केंद्र व राज्य सरकारें चाहें, तो इन करों में कुछ कटौती करके जनता को राहत दे सकती हैं। लेकिन न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें चाहती हैं कि इन करों में कोई कमी हो।
केन्द्र में जब यूपीए सरकार थी तब महंगाई बढ़ने की एक मुख्य वजह अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें थीं। उस वक्त दाम आसमान छू रहे थे। कच्चे तेल की कीमतें 110 डॉलर प्रति बैरल से ज्यादा थी। बावजूद इसके राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में पेट्रोल 73.18 रुपये लीटर ही था। अब जबकि साल 2018 में कच्चे तेल की औसत कीमत 78 डॉलर प्रति बैरल हो गई है, तब भी दिल्ली में लोगों को पेट्रोल 80 रुपये 73 पैसे का मिल रहा है। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम लगातार घटे हैं, लेकिन फिर भी महंगाई पर कोई नियंत्रण नहीं हुआ है। आर्थिक विकास दर में तेजी के सरकारी दावों के बरक्स, देश में महंगाई की दर बढ़ी है। इस साल जून में खुदरा महंगाई दर बढ़कर 5 फीसदी के स्तर को पार कर गई है। यदि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल और महंगा हुआ, तो महंगाई किस स्तर पर पहुंचेगी, खुद ही अंदाजा लगाया जा सकता है। बढ़ती महंगाई, अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव डाल रही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले छह महीनों में विदेशी निवेशकों ने अपने 48,000 करोड़ रुपए भारतीय बाजारों से डॉलर के रूप में निकाले हैं, जिससे डॉलर की मांग बढ़ी है। एक अहम बात और, भारत निर्यात के मुकाबले आयात ज्यादा करता है, जिससे व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है और रुपया कमजोर हुआ है। रुपए के कमजोर होने का असर पूरी अर्थव्यवस्था पर साफ दिख रहा है। पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ने से आवश्यक वस्तुओं के दाम भी बढ़े हंै, आने वाले दिनों में जिसका असर आम-जन पर होना तय है। महंगाई से पहले ही जूझ रहे आम आदमी की जिंदगी इससे और भी ज्यादा मुश्किल हो जाएगी। मोदी सरकार ने देशवासियों को अच्छे दिन का सपना दिखाकर, उनके साथ धोखा किया है।
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