केरल में आई विनाशकारी बाढ़ पिछले कुछ दशकों में देश में आई सबसे भीषणतम प्राकतिक आपदा है। देश में बाढ़Þ के कारण प्रति वर्ष हजारों लोग प्रभावित होते हैं फिर भी देश में आपदा प्रबंधन रणनीति नहीं है जोकि अतयावश्यक है और यह इसलिए भी आवश्यक है कि ऐसी आपदाओं में गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग सर्वाधिक प्रभावित होता है। हैरानी की बात यह है कि वर्ष 2017 की सरकार की लेखा परीक्षा रिपोर्ट के अनुसार केरल में कोई आकस्मिक कार्य योजना नहीं है।
वस्तुत: नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में पाया गया कि मार्च 2016 तक केवल 349 बडेÞ बांधों के संबंध में आपात कार्य योजना बनाई गई है। ऐसे मानचित्रों व कार्य योजनाओं के अभाव में हालांकि जिला प्राधिकारी स्थानीय लोगों को बांधों में बढ़ते जल स्तर के बारे में चेतावनी दे सकते हैं किंतु उन्हें यह आभास नहीं होता है कि कितना क्षेत्र बाढ़Þ की चपेट में आएगा। इसलिए बाढ़Þ से प्रभावित डूब क्षेत्र के मानचित्र बनाए जाने चाहिए जो राहत कार्यों में उपयोगी हो सकते हैं। जब दर्जनों बांधों के द्वार खोले गए और पानी छोड़ा गया इससे बाढ़ की स्थिति भयावह बनी और इसके कारण केरल में लगभग 7 लाख लोग विस्थापित हुए।
प्रश्न उठता है कि क्या सरकार के पास ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए वित्तीय संसाधन हैं? अधिकतर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि सरकार के पास इतने आर्थिक संसाधन नहीं हैं। बीमा दावे 4-5000 करोड़ रूपए तक पहुंचने की संभावना है। इससे अंदाजा लगाया हा सकता है कि लोगों को कितनी हानि हुई है। इसके अलावा कोच्चि हवाई अड्डे के बाढ़Þ में डूब जाने से पहली बार पता चला है कि नदियों के प्रवाह क्षेत्र में हवाई अड्डे भी बाढ़Þ की चपेट में आ सकते हैं।
वर्ष 2005 में मुंबई में और 2015 में चेन्नई में अभूतपूर्व बारिश के कारण भीषण बाढ़Þ आई थी और इन दोनों शहरों में हवाई अड्डों को बंद करना पड़ा था। ये हवाई अड्डे न केवल नदियों के निकट बनाए गए हैं अपितु इनका रनवे भी नदियों के पास है। किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नदियों के पास बना हर हवाई अड्डा बाढ़Þ की चपेट में आ सकता है और इसका उदाहरण गोवा व मैसूर है।
शहरों के विस्तार व सरकार द्वारा दो नए हवाई अड्डों के निर्माण की योजना पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। शहरी वनीकरण के बजाय शहरों में पेड़ों की कटाई व जल स्रोतों के भराव के कारण महानगर और शहरों में बाढ़Þ की स्थिति बढ़ी है। भूस्खलन, भूकंप और बाढ़Þ आम बातें हो गई हैं। जलवायु परिवर्तन के बाद ये आपदाएं कुछ ज्यादा ही दिखने को मिल रही हैं
और इसमें गरीब और कमजोर वर्गों को सर्वाधिक नुकसान उठाना पड़ रहा है। बाढ़Þ के अनेक कारण हैं और हर क्षेत्र में तथा ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में इसके विभिन्न कारण हैं। अति वृष्टि एक प्रुमख कारण है। उदहारण के लिए जुलाई 2017 में माउंट आबू में 300 सालों में सबसे भारी वर्षा हुई यहां 24 घंटे में 700 मिमी वर्षा हुई जिसके कारण वहां भारी बाढ़Þ आई।
नदियों में गाद भरने और नालों की सफाई न होना भी बाढ़ का प्रमुख कारण है। पहाड़ी क्षेत्रों में बाढ़ का मुख्य कारण भूस्खलन है। जून 2013 में उत्तराखंड में भूस्खलन के कारण नदियों का प्रवाह रूक गया जिसके चलते भारी बाढ़ आयी और जिसमें 5748 मौतें हुई। तूफान, भूकंप, नदी के तटों पर अतिक्रमण आदि भी बाढ़ के प्रमुख कारण हैं। केरल को राहत राशि के नाम पर सरकार ने बहुत कम राशि दी है। सुनामी और 2013 में उत्तरखंड की बाढ़ के दौरान सरकार ने बहुत कम राहत राशि दी थी। राज्यों की खराब अर्थव्यवस्था के चलते ये ऐसी आपदाओं से निपटने में अक्षम रहते हैं।
ऐसी भी खबरें हैं कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के पास आपदा निवारण उपायों विशेषकर बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में निवारण उपायों के लिए पर्याप्त धनराशि नहीं है। इसलिए आपदाओं से निपटने के लिए निरंतर तैयारी की जानी चाहिए तथा केन्द्र और राज्य सरकारों को विशेषकर बाढ़ से निपटने के लिए निरंतर प्रयास करने चाहिए। इसके लिए उन्हें बाढ़ प्रवण क्षेत्रों का मानचित्रण करना चाहिए। बाढ़ के दौरान जन धन की हानि को कम करने के लिए भू उपयोग नियंत्रण करना चाहिए।
संभावित खतरे वाले क्षेत्रों से लोगों का पुनर्वास किया जाना चाहिए। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत का 12 प्रतिशत क्षेत्र बाढ़ प्रवण क्षेत्र है। केन्द्रीय जल आयोग के अनुसार 1970 से 2000 तक बाढ़ के कारण सकल घरेलू उत्पाद में कुल .90 का नुकसान हुआ है। उसके बाद यह नुकसान कम होकर .20 रह गया है। फिर भी यह राशि काफी बड़ी है। जनसंख्या वृद्धि और नदी तथा समुद्र तटों पर जन घनत्व के बढ़ने के साथ इन क्षेत्रों के बाढ़ के समय डूबने की संभावनाएं अधिक रहती हैं। इसलिए इन गरीब लोगों को बचाने के लिए उपमंडल स्तर पर तैयारी की जानी चाहिए।
धुर्जति मुखर्जी
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।