गरीबी का संबोधन मिटे

Poverty alleviation

गरीबी केवल भारत की ही नहीं, बल्कि दुनिया की एक बड़ी समस्या है, एक अभिशाप है। दुनियाभर में फैली गरीबी के निराकरण के लिए ही संयुक्त राष्ट्र में साल 1992 में हर साल 17 अक्टूबर को गरीबी उन्मूलन दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई। सभी देशों में गरीबी और निर्धनता उन्मूलन की जरूरत पर जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए इस दिन को नामित किया था। इस दिन कई देशों द्वारा गरीबी उन्मूलन के लिए प्रयास, विकास एवं विभिन्न कार्यों व योजनाओं को जारी किया जाता है। गरीबी एक गंभीर बीमारी है, किसी भी देश के लिए गरीबी अत्यधिक निर्धन होने की समस्या होती है। जब किसी राष्ट्र के लोगों को रहने को मकान, जीवन निर्वाह के लिये जरूरी भोजन, कपड़े, दवाइयां आदि जैसी चीजों की कमी महसूस होती है, तो वह राष्ट्र गरीब राष्ट्र की श्रेणी में आता है।

एक दिन एक बहस चली कि गरीबी की परिभाषा क्या है? धनहीन, चरित्रहीन या विवेकहीन या जो व्यवहार नहीं जानता हो अथवा जिसकी समाज में कोई इज्जत न हो। ये सब मापदण्ड अभी मनुष्य के दिमाग में आये नहीं हैं। वह तो बस गरीब उसको मानता है जिसके पास धन उसकी जरूरत से कम हो या जो दो वक्त की रोटी की जुगाड़ नहीं कर सकता। जो अपनी बूढ़ी मां का इलाज नहीं करवा सकता। जो अपने बच्चों की फीस नहीं भरवा सकता। गरीबी व्यक्ति को बेहतर जीवन जीने में अक्षम बनाता है। गरीबी के कारण व्यक्ति को जीवन में शक्तिहीनता और आजादी की कमी महसूस होती है। गरीबी उस स्थिति की तरह है, जो व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कुछ भी करने में अक्षम बनानी है।

इसके अनेकों चेहरे हैं जो व्यक्ति, स्थान और समय के साथ बदलते रहते हैं। गरीबी ऐसी त्रासदी एवं दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति है जिसका कोई भी अनुभव नहीं करना चाहता। एक बार महात्मा गांधी ने कहा था कि गरीबी कोई दैवीय अभिशाप नहीं है बल्कि यह मानवजाति द्वारा रचित सबसे बड़ी समस्या है। विश्व में सुरसा की तरह मुँह फैलाती हुई गरीबी शासनतंत्र की विफलता का भी द्योतक हैं। क्योंकि गरीबी से संबन्ध सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष की मासिक या सालाना आय से नहीं बल्कि स्वास्थ्य, राजनीतिक भागीदारी, देश की संस्कृति और सामाजिक संगठनों की उन्नति से भी है। भारत में गरीबी का मुख्य कारण बढ़ती जनसंख्या, कमजोर कृषि, भ्रष्टाचार, रूढ़िवादी सोच, जातिवाद, अमीर-गरीब में ऊंच-नीच, नौकरी की कमी, अशिक्षा, बीमारी आदि हैं। भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसके बावजूद भारत में मौजूद सबसे ज्यादा संख्या मे किसान ही इस गरीबी के दंश को झेलने के लिए मजबूर हैं।

सरकार की गलत नीतियों, खराब कृषि और बेरोजगारी की वजह से लोगों को भोजन की कमी से जूझना पड़ता है। यही कारण है की महंगाई ने भी पंख फैला रखे हैं। वहीं भारत में बढ़ती जनसंख्या भी गरीबी का एक प्रमुख कारण है। अधिक जनसंख्या मतलब अधिक भोजन, पैसा और घर की जरूरत। मूल सुविधाओं की कमी के कारण गरीबी ने तेजी से अपने पांव पसारे हैं। अत्यधिक अमीर और भयंकर गरीब ने अमीर और गरीब के बीच की खाई खोद रखी है।
सरकार भी ऐसे ही लोगों को गरीब मानती है जिनकी वार्षिक आय सरकार के निर्धारित आंकड़ों से कम हो। लेकिन गरीबी केवल आर्थिक ही नहीं होती। बुद्धिजीवी हर आदमी को, यहां तक कि हर देश को, तुलनात्मक दृष्टि से गरीब मानते हैं। दार्शनिक गरीब उसको मानता है जो भयभीत है, जो थक गया है, जो अपनी बात नहीं कह सकता। साधारण आदमी, झोंपड़ी में रहने वाले को गरीब और महल में रहने वाले को अमीर मानता है।

खैर! यह सत्य है कि गरीब की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। तब गरीबी की रेखा क्या? क्यों है? गरीबी को खत्म करने में जो चीज सबसे अहम है वो है असमानता को दूर करना। अगर ऐसा नहीं होता है तो गरीबों के लिए विकास का कोई मतलब नहीं होगा। एक आजाद मुल्क में, एक शोषणविहीन समाज में, एक समतावादी दृष्टिकोण में और एक कल्याणकारी समाजवादी व्यवस्था में यह गरीबी रेखा नहीं होनी चाहिए। यह रेखा उन कर्णधारों के लिए ह्वशर्म की रेखा है, जिसको देखकर उन्हें शर्म आनी चाहिए। यहां प्रश्न है कि जो रोटी नहीं दे सके वह सरकार कैसी? जो अभय नहीं बना सके, वह व्यवस्था कैसी? जो इज्जत व स्नेह नहीं दे सके, वह समाज कैसा? जो शिष्य को अच्छे-बुरे का भेद न बता सके, वह गुरु कैसा?

अगर तटस्थ दृष्टि से बिना रंगीन चश्मा लगाए देखें तो हम सब गरीब हैं। जैसे भय केवल मृत्यु में ही नहीं, जीवन में भी है। ठीक उसी प्रकार भय केवल गरीबी में ही नहीं, अमीरी में भी है। यह भय है आतंक मचाने वालों से, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों से जहां है वहां से नीचे उतर जाने का, प्रियजनों की सुरक्षा का। जब चारों तरफ अच्छे की उम्मीद नजर नहीं आती, तब मनुष्य नैतिकता की ओर मुड़ता है तब भय शक्ति देता है। कारण, उस समय सभी कुछ दांव पर होता है। गरीबी भी शक्ति होती है, भय भी शक्ति होता है। कायरता में से ही साहस पैदा होता है। हर व्यक्ति में अभी तक इतनी सोच नहीं बन सकी। लेकिन हमारे कदम तो उस ओर बढ़ें। दुर्भाग्य है, शासन व्यवस्थाओं पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है।

ललित गर्ग

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