तापमान बढ़ने के साथ पूरी दुनिया में ग्लेशियर यानी हिमखंड बहुत तेजी से पिघल रहे हैं। नतीजतन समूचे बर्फीली इलाकों में नवीन झीलों का निर्माण हो रहा है। यदि इन झीलों के फटने की घटना घटती है तो इन ग्लेशियरों के पचास किलोमीटर के दायरे में रहने वाले दुनिया के 1.5 करोड़ लोगों के लिए यह संकट बहुत बड़ा खतरा बन सकता है। इन हिमखंडों में से आधे भारत, पाकिस्तान, चीन और पेरू में हैं। नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में प्रकाशित यूके स्थित न्यूकासल विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के इस अध्ययन में कहा गया है कि खतरे का सामना कर रही दुनिया की 50 प्रतिशत यानी 75 लाख की आबादी भारत समेत इन चार देशों में रहती है।
भारत में 30 लाख और पाकिस्तान में 20 लाख लोग इससे प्रभावित हो सकते हैं। इस रिपोर्ट में उत्तराखंड के चमोली में फरवरी 2021 में हुई घटना का भी हवाला दिया गया है। इसमें 80 लोगों की मौत हो गई थी। सबसे ज्यादा खतरा तिब्बत के पठार किर्गिस्तान से लेकर चीन तक है। इस इलाके में 93 लाख लोग रहते हैं। धु्रवीय क्षेत्र के बाहर कुल ग्लेशियरों में से आधे पाकिस्तान में हैं। 2022 में गिलगिट-बाल्टिस्तान क्षेत्र में ग्लेशियर फटने की 16 घटनाएं घटित हुई हैं। हालांकि इस रिपोर्ट में यह स्पष्ट नहीं है कि 2022 में पाकिस्तान में आई बाढ़ के लिए हिमखंड का पिघलना कितना जिम्मेदार है। न्यूजीलैंड के कैंटरबरी विवि के प्राध्यापक टॉम रॉबिनसन का कहना है कि ग्लेशियर झील का फटना जमीनी सुनामी की तरह है। इसका असर किसी बांध के फटने जैसा दिखाई देगा। सबसे बड़ा संकट यह है कि यह संकट बिना कोई पूर्व चेतावनी के कहर बरपा सकता है।
भारत के हिमालयी क्षेत्र में स्थित सतलुज नदी घाटी में हिमखंडों के पिघलने से ऐसी झीलों की संख्या बढ़ रही है, जो भविष्य में बाढ़ और तबाही का बड़ा खतरा बन सकती है। इन बर्फीली वादियों में 273 नई झीलें बनी हैं। मान सरोवर से नाथपा-झाकड़ी तक कुल 1632 झीलें गिनी गई हैं। इनमें से 17 झीलें खतरे के निशान तक पहुंच गई हैं, जिनमें से आठ चीन के कब्जे वाले तिब्बत क्षेत्र में है। इनका क्षेत्रफल पांच हेक्टेयर तक है। ये झीलें सतलुज के पानी को बढ़ाकर बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है। अत: ये झीलें हिमाचल समेत अन्य हिमालयी राज्यों के लिए खतरे की घंटी है। देश व प्रदेश के भू-विज्ञानी हिमालयी क्षेत्र की चार घाटियों चिनाब, ब्यास, रावी व सतलुज में हिमखंड पिघलने से बनी झीलों की निगरानी में लगे हैं। इनके अध्ययन से पता चला है कि सतलुज नदी घाटी में ग्लेशियरों के पिघलने से झीलों में पानी की मात्रा 4 से 5 प्रतिशत तक बढ़ गई है। भविष्य में और बढ़ने की आशंका है। बढ़ते तापमान के कारण हिमखंडों के पिघलने व टूटने से झीलों के आकार बड़े हो रहे हैं। इस बदलाव को जलवायु परिवर्तन का कारण माना जा रहा है।
2005 में भू-स्खलन से पारछू झील टूट गई थी। नतीजतन सतलुज का जलस्तर बढ़ा और उसने हिमाचल प्रदेश के किन्नौर व बिलासपुर जिलों में तबाही मचा दी थी। कुछ समय पहले गोमुख के विशाल हिमखण्ड का एक हिस्सा टूटकर भागीरथी, यानी गंगा नदी के उद्गम स्थल पर गिरा था। हिमालय के हिमखण्डों का इस तरह से पिघलना व टूटना प्रकृति के अशुभ संकेत हैं। गंगोत्री राष्टÑीय उद्यान के वनाधिकारी ने इस हिमखण्ड के टुकड़ों के चित्रों से इसके टूटने की पुष्टि की थी।
ग्लेशियर वैज्ञानिक इन घटना की पृष्ठभूमि में कम बर्फबारी होने के साथ धरती का बढ़ा तापमान मानते हैं। सतलुज और नंदादेवी हिमखंडों के तेजी से पिघलने के पीछे भौगोलिक परिस्थितियां है। यहां का तापमान 0.5 डिग्री बढ़ चुका है और इस क्षेत्र में 30 प्रतिशत बारिश भी कम हो रही है। यदि कालांतर में धरती पर गर्मी इसी तरह बढ़ती रही और ग्लेशियर क्षरण होने के साथ टूटते भी रहे तो इनका असर समुद्र का जलस्तर बढ़ने और नदियों के अस्तित्व पर पड़ना तय है। गरमाती पृथ्वी की वजह से हिमखण्डों के टूटने का सिलसिला आगे भी जारी रहा तो समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, जिससे कई लघुद्वीप और समुद्रतटीय शहर डूबने लग जाएंगे। हालांकि वैज्ञानिक अभी तक यह निश्चित नहीं कर पाए हैं कि इन घटनाओं को प्राकृतिक माना जाए या जलवायु परिवर्तन के कारण ?
हिमखंडों के पिघलने और टूटने की घटनाओं को वैज्ञानिक फिलहाल साधारण घटना मानकर चल रहे थे। उनका मानना था कि कम बर्फबारी होने और ज्यादा गर्मी पड़ने की वजह से हिमखण्डों में दरारें पड़ गई थीं, इनमें बरसाती पानी भर जाने से हिमखण्ड टूटने लग गए। उत्तराखण्ड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग की आंच ने भी हिमखण्डों को कमजोर करने का काम किया है। आग और धुएं से बर्फीली शिलाओं के ऊपर जमी कच्ची बर्फ तेजी से पिघलती चली गई। इस कारण दरारें भर नहीं पाईं। कार्बन यदि शिलाओं पर जमा रहता है तो भविष्य में नई बर्फ जमने की उम्मीद कम हो जाती है। इधर हाल ही में कश्मीर घाटी में बड़ी मात्रा में पीले रंग की बर्फ देखने में आई है। इसके पहले भी इस ्रक्षेत्र में काली बर्फ और काली बारिश देखने में आई थी। बर्फ का यह रंग परिवर्तन क्यों हुआ, इसका स्पष्ट कारण पर्यावरणविद् नहीं जान पाए हैं। हो सकता है जलवायु परिवर्तन इसका कारण हो ?
वैसे हिमखण्डों का टूटना कोई नई बात नहीं है, लेकिन इनका पिघलना नई बात है। शताब्दियों से प्राकृतिक रूप में हिमखण्ड पिघलकर नदियों की अविरल जलधारा बनते रहे हैं। लेकिन भूमण्डलीकरण के बाद प्राकृतिक संपदा के दोहन पर आधारित जो औद्योगिक विकास हुआ है, उससे उत्सर्जित कार्बन ने इनके पिघलने की तीव्रता को बढ़ा दिया है।एक शताब्दी पूर्व भी हिमखण्ड पिघलते थे, लेकिन बर्फ गिरने के बाद इनका दायरा निरंतर बढ़ता रहता था। इसीलिए गंगा और यमुना जैसी नदियों का प्रवाह बना रहा। किंतु 1950 के दशक से ही इनका दायरा तीन से चार मीटर प्रति वर्ष घटना शुरू हो गया था। 1990 के बाद यह गति और तेज हो गई इसके बाद से गंगोत्री के हिमखंड प्रत्येक वर्ष 5 से 20 मीटर की गति से पिघल रहे हैं। भारतीय हिमालय में कुल 9975 हिमखण्ड हैं। इनमें 900 उत्तराखण्ड के क्षेत्र में आते हैं। इन हिमखण्डों से ही ज्यादातर नदियां निकली हैं, जो देश की 40 प्रतिशत आबादी को पेय, सिंचाई व आजीविका के अनेक संसाधन उपलब्ध कराती हैं। किंतु हिमखण्डों के पिघलने और टूटने का यही सिलसिला बना रहा तो ऐसा कोई उपाय मुश्किल है जो इन नदियों से जीवनयापन कर रही 50 करोड़ आबादी को रोजगार व आजीविका के वैकल्पिक संसाधन दे सके?
ज्लवायु परिवर्तन के प्रभाव से बर्फ के पिघलने से बनने वाली झीलों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसी अनुपात में इनके जलग्रहण क्षेत्रों में भी आबादी बढ़ती रही है। जानकारों का दावा है कि उतना खतरा झीलों के फटने से नहीं है, अलबत्ता इन झीलों के निकट जनसंख्या का दबाव बढ़ जाने के कारण है। गोया, झील फटती है तो झील के किनारे आबाद बस्ती के लोग संकट से घिर जाएंगे। ये झीलें ऐसे दुर्गम बफीर्ले इलाकों में बन रही हैं, जहां आपदा बचाव दलों का पहुंचना भी कठिन होता है। 1089 झीलों की पड़ताल में पाया गया है कि पचास किलोमीटर के दायरे में 1.5 करोड़ लोग रहते हैं।
(यह लेखक के अपने विचार हैं) प्रमोद भार्गव वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार
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