कोरोना की आड़ में राजनीति

Politics under the cover of Corona
विजेता योद्धा पहले विजय प्राप्त करते हैं और फिर युद्ध लड़ते हैं। जबकि पराजित योद्धा पहले युद्ध लड़ते हैं और फिर विजय प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि हमारे नेता और राज्य सरकारें किस श्रेणी में आती हैं अन्यथा पेट्रोल और डीजल के दामों में 1 रूपए से लेकर 7 रूपए तक की वृद्धि और शराब पर 70 प्रतिशत कोरोना उपकर नहीं लगाया जाता और विशेषकर ऐसे समय में जब आम आदमी वेतन में कटौती और रोजगार खोने के कारण अपना मासिक गुजर-बसर करने में अनेक दिक्कतों का सामना कर रहा है।
कोरोना देश की राजनीति में आपका स्वागत है। हमारे नेताओं के तर्क तर्कसंगता से परे हैं। लॉकडाउन के कारण राजस्व और उत्पाद कर का नुकसान हुआ। शराबी कुछ भी हो जाए और कितने भी पैसे बढ़ा दो वे नशा करेंगे और लॉकडाउन समाप्त होने के बाद लोग सड़कों पर आएंगे इसलिए मौके का फायदा उठाया जाए। शायद वे सही हैं किंतु उन्होंने नागरिक कल्याण की उपेक्षा की है। यह ऐसे समय पर व्यक्ति पर आघात करने के समान है जब वह पहले ही वेदना में है और उसका भविष्य अनिश्चित है। किंतु लगता है कि ये लोग सबसे बड़ा रूपया के सिद्धान्त से प्रेरणा ले रहे हैं। क्या कर दरों में वृद्धि अंतिम उपाय नहीं होना चाहिए था? विशेषकर तब जब विश्व भर में तेल के दाम अपने सबसे निचले स्तर तक पहुंच गए हैं। मंत्री, नौकरशाह और पुलिसकर्मी सरकारी वाहनों में यात्रा करते हैं किंतु आम आदमी की जेब पर प्रभाव पड़ता है। उन्हें न केवल अपने कार्य स्थल अपितु घर के कार्यों के लिए भी यात्रा करनी पड़ती है और यही नहीं उन्हें महानगरों में अंतहीन ट्रैफिक जाम या वीआईपी मूवमेंट के कारण यातायात रोकने से भी तेल जलाना पड़ता है। इसके अलावा इस वृद्धि से माल और आवश्यक सेवाओं की लागत में भी वृद्धि होगी किंतु हमारे राजनेताओं के लिए यह अविवेकपूर्ण वृद्धि महत्वपूर्ण नहीं है और उनका कहना है कि यह देश के लिए त्याग करने का समय है।
क्या वास्तव में ऐसा है? ये नेता हमें बेवकूफ बना रहे हैं क्योंकि उन्होंने इस कहावत को पलट दिया है कि जीवन हमें वह सब कुछ देने के लिए बाध्य नहीं है जिसकी हम अपेक्षा करते हैं। हमारे नेतागण ओलिवर सिंड्रोम से ग्रस्त होकर हमेशा और अधिक की मांग करते रहते हैं और ओरवेलियन विकृति से ग्रस्त होकर वे हमेशा मानते हैं कि मैं आप लोगों से अधिक सम्मानित हूं और साथ ही वे हर बात पर साड्डा हक जताते हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि हम किस प्रकार जीवन यापन कर रहे हैं या हमें क्या कष्ट हो रहे हैं। हमारे शासकों को मिलने वाली सुविधाओं पर नजर दौड़ाएं उनके सारे खर्च सरकार वहन करती है। उन्हें वेतन जीवन पर्यन्त पेंशन, आवास, भोजन, सहायक कर्मचारी, ड्राइवर, गाड़ी, सुरक्षा सब कुछ मिलता है। यदि वे विनम्रता शुरूआत स्वयं से करें तो क्या हमारे इन बड़े साहिब लोगों को सुसज्जित बंगलों में रहना चाहिए जहां पर वे गेहूं और सब्जियां तक उगा रहे हैं। उन्हें फर्नीचर, एयरकंडीशनर, फ्रिज, रखरखाव, खर्चा, बिजली, पानी, सब कुछ नि:शुल्क मिलता है और इस तरह वे शक्ति और जन संसाधनों का दुरूपयोग करते हैं और हर समय सुरक्षा घेरे में रहते हैं और इसके चलते करदाताओं को प्रति वर्ष 70 करोड़ रूपए अतिरिक्त कर देना पड़ता है।
यही नहीं प्रत्येक सांसद को प्रति वर्ष 4000 किलोलीटर पानी, 50 हजार यूनिट बिजली, फर्नीचर के लिए 30 हजार रूपए, टेलीफोन पर डेढ लाख स्थानीय कॉल और नि:शुल्क इंटरनेट इसके अलावा प्रत्येक तीन महीने में सोफा कवर और पर्दों की धुलाई का खर्च भी सरकार द्वारा उठाया जाता है और एक सुरक्षाकर्मी हर समय उनके पास तैनात रहता है। क्या एक जनसेवक को उस जनता से रक्षा के लिए सुरक्षाकर्मियों की आवश्यकता है जिसकी सेवा करने की वे कसमें खाते हैं और इन सबका खर्चा आम आदमी द्वारा उठाया जाता है और फिर भी वे अपने इन अन्नदाताओं के घर के बाहर अपने काम कराने के लिए लंबी लंबी कतारों मे खड़े रहते हैं। यह बात समझ में नहीं आती है कि हमारे नेताओं को मोटा वेतन, भत्ते और नि:शुल्क यात्रा की सुविधाएं क्यों दी गयी हैं? क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि हम न केवल पूर्व सांसदों और विधायकों अपितु उनके निधन पर उनके परिवारजनों को भी पेंशन देते हैं। क्या हमने उन्हें तब भुगतान नहीं किया था जब वे सेवा कर रहे थे? जनसेवा के लिए किसी पैसे की आवश्यकता नहीं होती है। किंतु त्रासदी यह है कि गत वर्षों में हम और अधिक सम्मान के आदी हो गए हैं और ये लोग जनता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। आम आदमी का दुर्भाग्य यह है कि वह भीड़भाड़ में जीने के लिए मजबूर है। ये लोग कोरोना महामारी के इस दौर में सोशल डिस्टैंसिंग का मजाक उड़ाकर कोरोना मामलों में वृद्धि में योगदान दे रहे हैं।
आज देश में गैर-सरकारी संगठन, गुरूद्वारे, नागरिक संगठन आदि गरीब तथा प्रवासी मजदूरों को भोजन उपलब्ध कराने में सहायता उपलब्ध करा रहे हैं किंतु हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों से ऐसी किसी पहल की खबर नहीं है और वे अपने घरों की सुख सुविधाओं में बंद हैं। मैंने नहीं सुना कि कोई सांसद या विधायक बाहर आकर राहत और बचाव कार्यों में व्यस्त है। क्या यह उनका कार्य नहीं है? क्या जनता का कल्याण उनके कार्यों में शामिल नहीं है? किंतु आज लगता है कि हम ऐसे भारत में रह रहे हैं जहां पर केवल वीवीआईपी को महत्व दिया जाता है जो आधिकारिक नामक एक संकरी पट्टी पर रहते हैं और विशेषाधिकारों की ओर भागते हैं। इसके चलते आज आम आदमी और खास आदमी के बीच खाई और चौड़ी हो गयी है और परिणामस्वरूप शासकों के प्रति लोगों में हताशा और आक्रोश बढ रहा है और जनता अवज्ञा पर उतर आयी है। हमारे बाबू लोग एयरकंडीशन्ड कार्यालर्यों में बैठकर जमीनी वास्तवकिता को समझे बिना आदेश जारी करते हैं।
इसका एक उदाहरण यह है कि प्रधानमंत्री ने रात के 8 बजे घोषणा की कि आज रात 12 बजे से लॉकडाउन प्रभावी होगा। किंतु किसी ने भी लाखों प्रवासी मजदूरों के बारे में नहीं सोचा जो घर के रहे न घाट के। फैक्टरियां बंद हो गयी, मकान मालिकों ने किराया न देने की वजह से उनसे मकान खाली करवा लिए। रेलगाड़ियां बंद हो गयी। वे बेरोजगार और बेघर हो गए और उन्हें राहत शिविरों में रखा गया जहां पर किसी तरह की सुविधाएं नहीं थी। उनके पास पैसा भी नहीं था और उन्हें अपना जीवन यापन करना कठिन हो गया। इन प्रवासी श्रमिकों के कष्टों की खबरें हमेशा सुनने को मिल रही हैं। हर दिन खबरें मिलती हैं कि सड़कों पर ये प्रवासी श्रमिक मारे गए हैं। शुक्रवार को महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेल पटरी पर सो रहे ऐसे 15 श्रमिक मालगाड़ी की चपेट में आ गए। किंतु हमारे नेता मानव त्रासदी का लाभ अपना वोट बैंक बढाने के लिए करते हैं। उनके लिए हर चीज कामचलाउ होती है। हमारे नेतागण अपने अपने राहत साम्राज्य का विस्तार कर रहे हैं और एक दूसरे पर उंगली उठा रहे हैं और यह मानव जीवन के प्रति राजनीतिक और प्रशासनिक उदासीनता को दशार्ता है। यह हमारे नेताओं के झूठे वायदों का प्रतीक है।
टीवी मीडिया हर रात इस आपदा को अलग अलग रंगों में दिखाता है। उसके लिए यह एक सर्कस बन गया है। उनकी चर्चाओं में हर तरह के राजनेता भाग लेते हैं जिनके बीच खूब तू-तू, मॅैं-मैं चलती है और एक दूसरे पर उंगली उठाते रहते हैं। वे बनावटी दुख का तमाशा करते रहते हैं। विपक्षी पार्टियां टीवी पर दिखने के लिए उत्साहित होती हैं। आज नई पीढी परिपक्व हो गयी है इसलिए नौकरशाहों और पुलिस सहित हमारे शासकों को इस बात को समझना होगा कि अब वे दिन नहीं रह गए जब नेताओं का सम्मान किया जाता था। आज के नेताओं को भारत की हर समस्या का प्रतीक माना जाता है। केवल दिखावे से काम नहीं चलेगा। ठोस कदम उठाने होंगे। अगर सच्चाई से मुंह मोड़ लिया गया तो फिर अव्यवस्था ही पैदा होगी।
पूनम आई कौशिश

अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।