Politics of Manipulation: देश की राजनीति में एक बार फिर जोड़-तोड़ की कशमकश जारी है। महाराष्ट्र में राजनीतिक घमासान चरम पर है। इधर, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की स्थिति भी शिवसेना जैसी होती जा रही है। पार्टी से बागी हुए अजित पवार ने भाजपा-शिवसेना गठबंधन में शामिल होकर न केवल उप-मुख्यमंत्री का पद संभाल लिया है बल्कि चुनाव आयोग के समक्ष अपने गुट को ही वास्तविक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी होने का दावा भी कर दिया है। ऐसी घटनाओं से मतदाता में दुविधा की भावना प्रबल होती है। अब सवाल यह है कि अजित पवार ने पद के लालच में बगावत की है या फिर पार्टी से तंग आकर कोई फैसला लिया है। पार्टी अध्यक्ष शरद पवार ने अपनी बढ़ती उम्र को देखते हुए हाल ही में अपनी बेटी सुप्रिया सुले को पार्टी का राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त कर दिया है, इसी बात से अजित नाराज बताए जा रहे थे। Politics of Manipulation
उधर, 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी पार्टियां जोर-आजमाइश कर रही हैं। कांग्रेस, जनता दल, एनसीपी सहित 17 पार्टियां गठबंधन की कोशिश में हैं। इस चलन में मुद्दों की चर्चा बिल्कुल नदारद है, केवल किसी पार्टी विशेष को हराना राजनीति या लोकतंत्र नहीं है, बल्कि राजनीति का संबंध मुद्दों से जुड़ा हुआ है। पार्टियों में एजेंडे की चर्चा से अधिक गठबंधन की चर्चा ज्यादा हो रही है। इसी तरह कयास लगाए जा रहे हैं कि बिहार में भी जल्द सियासी तूफान उठने वाला है। वस्तुत: विचारों/एजेंडे की चर्चा जनता को अपने से जोड़ती है। लोकतंत्र में जनता का भी अहम स्थान है, लेकिन जब बिना किसी एजेंडे के बदलाव, गठबंधन हो जाए तब राजनीति केवल पार्टी नेताओं की कशमकश तक सीमित रह जाती है। Politics
वास्तव में राजनीति में विश्वसनीयता व स्पष्टता आवश्यक है लेकिन राजनीति इतनी पेचीदा स्थिति में पहुंच गई है कि आम वोटर को पता ही नहीं होता कि आखिर ये चल क्या रहा है। यदि कोई नेता किसी पार्टी का कट्टर विरोधी होता है और उसे जनता का दुश्मन बताया जाता है, जब वही नेता सत्ता में आ जाता है तो उसे वही पार्टी मां से भी प्यारी और उसे जनता का सेवक कहा जाने लगता है। राजनीति में स्वार्थ इस हद तक बढ़ गया है कि गठबंधन के लिए सिद्धांतों की बलि दी जाती है और केवल पद लेना ही मुख्य उद्देश्य रह जाता है।
एक ऐसा भी समय था जब गुरमुख सिंह मुसाफिर जैसे नेता को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाने पर सहमति हो गई थी, तब मुसाफिर साहब को यह निर्णय पसंद नहीं आया और वह कहीं जाकर छिप गए थे। बड़ी मुश्किल से उन्हें ढूंढा गया, वहीं दूसरी ओर हमने एक ऐसा नेता भी देखा जिसने पंद्रह दिन के अंदर तीन पार्टियां बदल लीं। दलबदल विरोधी कानून बनाने का मुख्य कारण उसी नेता का तख्तापलट था। गठबंधन भी टूट रहे हैं और बन भी रहे हैं। पता नहीं कब किसी नेता को अपने प्रतिद्वंद्वी नेता का पार्टनर बनने का वक्त आ जाए, इसका कोई भरोसा नहीं। यह चलन राजनीति चमक को फीका कर रहा है। Politics of Manipulation
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