संपादकीय : जटिल हो रही राजनीति

Politices

प्रकृति का एक नियम होता है और उन्हीं नियमों के अनुसार प्रकृति में परिवर्तन होता है लेकिन राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है जहां कई उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं। राजनेता होशियारी से नए-नए दाव पेंच खेलते हैं, इसमें देरी करने वाला मार खा जाता है। राजनीति की प्रयोगशाला में कई प्रकार के अनुभव होते हैं, जिसमें जनता की बलि देने से भी नहीं हिचकिचाया जाता। ताजा मामला पंजाब कांग्रेस में मचे घमासान का है, जो पिछले कुछ महीनों से जारी है। सरकार और मुख्यमंत्री की कार्यशैली पर सवाल उठ रहे हैं, कोई दावा कर रहा है कि यदि कमान मुख्यमंत्री के हाथ रही तब 2022 का विधानसभा चुनाव जीत पाना कठिन होगा।

यहां सोचने वाली बात है कि यह हंगामा पहले चार वर्षों में क्यों नहीं हुआ? अब चुनाव नजदीक आ रहे हैं तो क्यों कुछ नेता आखिरी वर्ष में सरकार की छवि सुधारने की बात कर रहे हैं। उन्हें जनता के मुद्दों की याद पहले क्यों नहीं आई? दरअसल पहले चार वर्ष तक मंत्री बनने और फिर अच्छा विभाग लेने के लिए गुपचुप तरीके से संपर्क साधा जाता है, नेता खूब जोर अजमाईश करते हैं, जब उन्हें मंत्री की कुर्सी मिल जाती है तब वे सरकार की बड़ी-बड़ी खामियों को अनदेखा कर देते हैं, क्योंकि उस वक्त उन्हें कुर्सी का नशा चढ़ा होता है। महामारी के दौर में सरकार के खिलाफ खड़े पार्टी के विधायकों, सांसदों से भी कांग्रेस की कमेटी को यह पूछ लेना चाहिए कि उन्होंने पिछले सवा साल में महामारी के दौर में अपने-अपने क्षेत्र में क्या काम किया? दरअसल पद की लालसा और सरकार की छवि सुधारने की लड़ाई के बीच की महीन रेखा को सीधे-सीधे देख पाना जरा मुश्किल है।

अवसर देखकर व्यवहार करना राजनीति में एक गुण की तरह है। अगर राजनीति में अवसरवादिता त्याग सेवाभावना को जगह मिले तब सरकार में भी सुधार हो जाएगा। राजनीतिक घमसान में पद की लड़ाई एवं सेवाभावना आज के दौर में पहचान पाना कठिन हो गया है। आम जनता गहनता से विचार नहीं करती, वह राजनीतिक चालों को नहीं समझ पाती। अच्छे-बुरे की पहचान करने पर जोर दिया जा रहा है लेकिन इस पहचान में साढ़े चार वर्ष की देरी क्यों रही? कोरोना जैसे महासंकट में लोगों के दुख को बाँटने की बजाए सियासत करने वालों को पंजाब की आवाम कभी माफ नहीं करेगी।

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