राजनीति जो कभी एक पवित्र नाम होता था, जो आज कलंकित हो गया। राजनीति राज यानि शासन करने की नीति न होकर अब सत्ता पर काबिज होने की नीति बनकर रह गई है। देश में जितने राजनीतिक दल हैं कोई भी इससे अछूता नहीं है। पहले जमाने में राजनीति उसूलों पर होती थी। राजनीतिक पार्टियों की अपनी विचारधारा, नियम व कायदे होते थे। कुछ समान विचारधारा वाली पार्टियां एक न्यूनतम सांझा कार्यक्रम तय करके गठबंधन बना लेती थी। जो अपनी विचारधारा और उसूलों पर टिके रहकर कुछ मुद्दों पर सहमति बना लेते थे लेकिन आज गठबंधन सत्ता में हिस्सेदारी के मुद्दे पर बनते हैं चाहे इसके लिए विचारधारा और उसूलों को भी तिलांजलि क्यों न देनी पड़े। इसका उदाहरण जनता हाल ही में महाराष्टÑ, मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों में देख चुकी है। कैसे सत्ता हथियाने के लिए पार्टियों द्वारा अपने चुने हुए विधायकों को कहीं अज्ञात स्थान पर छुपाकर, सहेज कर रखना पड़ा है, ऐसे अनेकों घटनाक्रम जनता देख चुकी है।
कांग्रेस और भाजपा दो विपरीत विचारधारा वाली पार्टियां मानी जाती है। भाजपा अपनी विचारधारा और उसूलों पर अडिग रहने वाली और कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता का गहना पहने एक शालीन पार्टी मानी जाती थी। लेकिन सत्ता पर काबिज होने की ललक ने इस तमाम आवरणों को हटा दिया है। अब कौन कब किस पार्टी में शामिल हो जाए, कहा नहीं जा सकता। अब बात उसूलों की नहीं ‘विनएबिलिटी’ (जीतने की क्षमता) की है। अब नेता चरित्र, नैतिकता, उसूलों, सेवा भावना को देखकर नहीं बल्कि विनएबिलिटी के आधार पर पार्टी ज्वाइन करवाते हैं। चाहे उसकी विचारधारा कैसी भी क्यों न हो। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, किसी को डराकर, धमकाकर, पैसे के बल पर, जैसे भी हो सत्ता प्राप्त हो जाए बस यही एक उसूल अब शेष रह गया है।
अभी पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनाव होने हैं। जिस प्रकार ऐन चुनाव के वक्त नेता दल बदल कर रहे हैं वो सबके सामने है पंजाब में प्रतिदिन नेताओं की निष्ठा बदल रही है। आज किसी दल में कल किसी दल में कहा नहीं जा सकता। नेता लोग सरेआम ऐलान करते हैं कि अगर मैं सत्ता में आ गया तो फलां को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दूंगा, फलां के साथ ऐसा कर दूंगा, वैसा कर दूंगा। मैंने फलां पर केस करा दिया, फलां पर नकेल कस दी इत्यादि इत्यादि। क्या कभी कानून और व्यवस्था की बातें होंगी? या यूं हीं मैं-मैं और बदलाखोरी की राजनीति? आखिर कब तक? अच्छे लोग आज राजनीति से किनारा करने लगे हैं जो समाज के लिए और भी घातक है। अच्छे लोगों को आगे बढ़ना होगा, मुखर होना होगा ताकि जनता को सही विकल्प चुनने का अवसर मिल सके। इसके लिए जनता को जागरूक होने की जरूरत है। समाज को बांटने, आपसी भाईचारा को खत्म करने वालों को सबक सिखाने का वोट ही एकमात्र हथियार है, जिसका इस्तेमाल जनता को बहुत सोच समझ कर करना चाहिए और इस संकल्प के साथ ही नववर्ष में प्रवेश करना चाहिए।
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