कहने को राजनीति नियमों, सिद्धांतों से चलती है लेकिन पार्टी की रणनीति में सिद्धांतों और नियमों की सरेआम उल्लंघना की जाती है। बड़ी बात तो यह है कि नेताओं की चतुराई के सामने कानून भी छोटा पड़ने लगता है। पंजाब में शिरोमणी अकाली दल व आम आदमी पार्टी ने ऐसे पैंतरे खेले कि दल बदलु विरोधी कानून होने के बावजूद दल बदलने वालों के खिलाफ कार्यवाही नहीं हो सकी। आम आदमी पार्टी ने विधायक सुखपाल खैहरा को पार्टी ने निकाल दिया और विधायक बलदेव सिंह ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया, परंतु पार्टी ने लेटलतीफी से दोनों की विधानसभा सदस्यता समाप्त करवा सकती थी।पार्टी ने ढीली कार्यवाही करते हुए खैहरा की सदस्यता को समाप्त करने के लिए विस स्पीकर को पत्र लिखा दूसरी तरफ बलदेव सिंह की शिकायत ही नहीं की।
आप के कई अन्य भी विधायक हैं जो सरेआम खैहरा के साथ खड़े हैं लेकिन विधानसभा में विपक्ष की भूमिका कायम रखने के लिए आम आदमी पार्टी ने चुप्पी साधी हुई है। हालांकि आप सुप्रीमो अरविन्द केजरीवाल सिद्धांतों पर चलने का दावा करते हैं लेकिन दल बदल रोकू कानून होने के बावजूद बागी विधायकों के खिलाफ कार्यवाही नहीं की। एचएस फुलकां तो आप की सदस्यता छोड़ने के साथ-साथ विधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे चुके हैं और वे हलके में कोई काम भी नहीं कर रहे हैं। वे वेतन भत्ते का लाभ भी बिना काम किए ले रहे हैं। उनका इस्तीफा मंजूर न होना भी चर्चा का विषय बना हुआ है।
शिरोमणी अकाली दल भी सिद्धांतों पर खरा उतरने से भाग रहा है। एमपी शेर सिंह घुबायाने जब अकाली दल से इस्तीफा दिया तो अकाली दल के वरिष्ठ नेता कह रहे हैं कि घुबाया ने इस्तीफा नहीं दिया बल्कि उन्हें पार्टी से निकाला है दूसरी तरफ पार्टी प्रधान सुखबीर सिंह बादल का कहना है कि शेर सिंह घुबाया तो पिछले दो सालों से ही कांग्रेस में थे। यदि कोई नेता दो सालों से पार्टी के साथ धोखा कर रहा था तो उसे इतना लंबे समय तक पार्टी में क्यों रखा गया? यह बात पार्टी की कोर कमेटी की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करती है। इसके विपरीत अकाली दल ने मनप्रीत बादल, रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा व रत्न सिंह अजनाला जैसे नेताओं के खिलाफ तुरंत कार्यवाही की थी।
दरअसल पार्टियां आंतरिक व बाहरी तौर पर किसी दुविधा में होने की बजाय नियमों की धज्जियां उड़ाकर अपनी सीटों संख्या की ताकत बरकरार रखने के लिए दल बदलते कानून को ही कमजोर साबित कर रही हैं। राजनीति में सच्चाई, स्पष्टत: व इमानदारी दुर्लभ वस्तुएं हो गई हैं आम लोगों के लिए राजनीति मजाक बनती जा रही है। पार्टियों पर शिकंजा कसने के लिए अब कानून को असरदार बनाने व सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है।
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