गत दिवस केंद्र सरकार द्वारा देश की सर्वोच्च अदालत में दाखिल हलफनामा में देश भर में 1765 सांसदों और विधायकों के खिलाफ 3045 आपराधिक मुकदमों से भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि देश के सियासी दलों में दागी माननीयों की भरमार है। दागी माननीयों के मामले में उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है तो वहीं तमिलनाडु दूसरे और बिहार तीसरे नंबर पर है।
उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार को ताकीद किया था कि वह 2014 में नामांकन भरते समय आपराधिक मुकदमा लंबित होने की घोषणा करने वाले विधायकों और सांसदों के मुकदमों की स्थिति बताए। सर्वोच्च अदालत ने यह भी पूछा था कि इनमें से कितनों के मुकदमें सर्वोच्च अदालत के 10 मार्च, 2014 के आदेश के मुताबिक एक वर्ष के भीतर निपटाए गए और कितने मामलों में सजा हुई एवं कितने बरी हुए।
सर्वोच्च अदालत ने सरकार से यह भी जानना चाहा था कि 2014 से 2017 के बीच कितने वर्तमान और पूर्व विधायकों व सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हुए। जवाब में केंद्र सरकार द्वारा सर्वोच्च अदालत में कुल 28 राज्यों का ब्यौरा दिया गया है जिसमें उत्तर प्रदेश के सांसदों-विधायकों के खिलाफ सबसे ज्यादा मुकदमें लंबित हैं। दागी माननीयों के मामले का शीध्र निपटारा किया जाना इसलिए भी आवश्यक है कि संसद और विधानसभाओं में दागी और आपराधिक चरित्र वाले माननीयों की तादाद कम होने के बजाए लगातार बढ़ती जा रही है।
अगर ऐसे दागी माननीयों के मामले का शीध्र निपटारा नहीं होगा तो देश भर में यहीं संदेश जाएगा कि कानून की नजर में सभी बराबर नहीं हैं। उचित होगा कि जनप्रतिनिधियों के मुकदमों का निस्तारण अति शीध्रता से हो और इसके लिए अलग से न्यायालय की स्थापना हो। अगर प्राथमिकता के आधार पर इन मुकदमों का निस्तारण नहीं होगा तो फिर राजनीति में आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का प्रवेश रोक पाना मुश्किल होगा। अगर चुनाव आयोग के आंकड़ों पर गौर करें तो 2014 में कुल 1581 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित थे। इसमें लोकसभा के 184 और राज्यसभा के 44 सांसद शामिल थे।
इनमें महाराष्ट्र के 160, उत्तर प्रदेश के 143, बिहार के 141 और पश्चिम बंगाल के 107 विधायकों पर मुकदमें लंबित थे। सभी राज्यों के आंकड़े जोड़ने के बाद कुल संख्या 1581 थी। यहां ध्यान देना होगा कि चुनाव दर चुनाव दागी जनप्रतिनिधियों की संख्या कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। उदाहरण के तौर पर 2009 के आमचुनाव में 158 यानी 30 प्रतिशत माननीयों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामलों की घोषणा की थी। आम चुनाव 2014 के आंकड़ों पर गौर करें तो 2009 के मुकाबले इस बार दागियों की संख्या बढ़ गयी।
दूसरी ओर ऐसे माननीयों की भी संख्या बढ़ी है जिनपर हत्या, हत्या के प्रयास और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं। आंकड़ों के मुताबिक 2009 के आमचुनाव में ऐसे सदस्यों की संख्या तकरीबन 77 यानी 15 प्रतिशत थी जो अब 16 वीं लोकसभा में बढ़कर 112 यानी 21 प्रतिशत हो गयी है। याद होगा गत वर्ष पहले सर्वोच्च अदालत ने दागी माननीयों पर लगाम कसने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री एवं राज्य के मुख्यमंत्रियों को ताकीद किया था कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दागी लोगों को मंत्री पद न दिया जाए क्योंकि इससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है। तब सर्वोच्च अदालत ने दो टूक कहा था कि भ्रष्टाचार देश का दुश्मन है और संविधान की संरक्षक की हैसियत से प्रधानमंत्री से अपेक्षा की जाती है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को मंत्री नहीं चुनेंगे।
लेकिन विडंबना है कि अदालत के इस नसीहत का पालन नहीं हो रहा है। ऐसा इसलिए कि सर्वोच्च अदालत ने दागी सांसदों और विधायकों को मंत्री पद के अयोग्य मानने में हस्तक्षेप के बजाए इसकी नैतिक जिम्मेदारी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के विवेक पर छोड़ दिया है। दरअसल प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों का अपना मंत्रिमंडल चुनने का हक संवैधानिक है और उन्हें इस मामले में कोई आदेश नहीं दिया जा सकता। ऐसा इसलिए भी संविधान के अनुच्छेद 75(1) की व्याख्या करते समय उसमें कोई नई अयोग्यता नहीं जोड़ी जा सकती।
जब कानून में गंभीर अपराधों या भ्रष्टाचार में अभियोग तय होने पर किसी को चुनाव लड़ने के अयोग्य नहीं माना गया है तो फिर अनुच्छेद 75(1) और 164(1) जो केंद्रीय और राज्य मंत्रिमंडल के चयन से संबंध है, के मामले में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के अधिकारों की व्याख्या करते हुए उसे अयोग्यता के तौर पर शामिल नहीं किया जा सकता। वैसे भी उचित है कि व्यवस्थापिका में न्यायपालिका का अनावश्यक दखल न हो। अगर ऐसा होगा तो फिर व्यवस्था बाधित होगी और लोकतंत्र को नुकसान पहुंचेगा।
लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि कार्यपालिका दागी जनप्रतिनिधियों को लेकर अपनी आंख बंद किए रहे और न्यायपालिका तमाशा देखे। यहां ध्यान देना होगा कि दागी माननीयों को लेकर सर्वोच्च अदालत कई बार अपनी सख्त टिप्पणी कर चुका है। लेकिन हर बार यहीं देखा गया कि राजनीतिक दल अपने दागी जनप्रतिनिधियों को बचाने के लिए कुतर्क गढ़ते नजर आए।
याद होगा गत वर्ष पहले जब सर्वोच्च अदालत ने जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के जरिए दोषी सांसदों व विधायकों की सदस्यता समाप्त करने और जेल से चुनाव लड़ने पर रोक लगायी तो राजनीतिक दलों ने किस तरह वितंडा खड़ा किया। तब उनके हैरतअंगेज दलील से देश हैरान रह गया। बता दें कि उस समय सर्वोच्च अदालत में एक याचिका दायर किया गया था जिसमें कैबिनेट से आपराधिक पृष्ठभूमि वाले मंत्रियों को हटाने की मांग की गयी थी। शुरू में न्यायालय ने इस याचिका को खारिज कर दिया लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा पुनर्विचार याचिका दाखिल किए जाने पर 2006 में इस मामले को संविधान पीठ के हवाले कर दिया।
इससे पहले भी सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फैसले में राजनीतिकों और अतिविशिष्ट लोगों के खिलाफ लंबित मुकदमें एक साल के भीतर निपटाने का आदेश दिया था। दूसरे फैसले में उसने कानून के उस प्रावधान को निरस्त कर दिया था जो दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों को अपील लंबित रहने के दौरान विधायिका का सदस्य बनाए रखता है। अब चूंकि केंद्र सरकार ने दागी जनप्रतिनिधियों के मामले की सुनवाई के लिए विशेष अदालत के गठन को हरी झंडी दिखा दी है ऐसे में राजनीति के शुद्धीकरण की उम्मीद बढ़ गयी है। अगर दोषी माननीयों पर कानून का शिकंजा कसता है तो फिर राजनीतिक दल ऐसे लोगों को चुनावी मैदान में उतारने से परहेज करेंगे। दरअसल राजनीतिक दलों को विश्वास हो गया है कि जो जितना बड़ा दागी है उसके चुनाव जीतने की उतनी ही बड़ी गारंटी है। गौर करें तो पिछले कुछ दशक से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है।
हैरान करने वाली बात यह कि दागी चुनाव जीतने में सफल भी हो रहे हैं। लेकिन यह लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है। लेकिन इसके लिए सिर्फ राजनीतिक दलों और उनके नियंताओं को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जनता भी बराबर की कसूरवार है। जब देश की जनता ही साफ-सुथरे प्रतिनिधियों को चुनने के बजाए जाति-पांति और मजहब के आधार पर बाहुबलियों और दागियों को चुनेगी तो स्वाभाविक रुप से राजनीतिक दल उन्हें टिकट देंगे ही। नागरिक और मतदाता होने के नाते जनता की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह ईमानदार, चरित्रवान, विवेकशील और कर्मठ उम्मीदवार को अपना प्रतिनिधि चुने।
यह तर्क सही नहीं कि कोई दल साफ-सुथरे लोगों को उम्मीदवार नहीं बना रहा है इसलिए दागियों को चुनना उनकी मजबूरी है। यह एक खतरनाक सोच है। देश की जनता को समझना होगा कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में नेताओं के आचरण का बदलते रहना एक स्वाभावगत प्रक्रिया है। लेकिन उन पर निगरानी रखना और यह देखना कि बदलाव के दौरान नेतृत्व के आवश्यक और स्वाभाविक गुणों की क्षति न होने पाए यह जनता की जिम्मेदारी है।
देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तरक्की के लिए जितनी सत्यनिष्ठा व समर्पण राजनेताओं की होनी चाहिए उतनी ही जनता की भी। दागियों को राजनीति से बाहर खदेड़ने की जिम्मेदारी राजनीतिक दलों के कंधे पर डालकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। उचित होगा कि केंद्र सरकार सर्वोच्च अदालत के सुझाव पर अमल करते हुए अति शीघ्र विशेष न्यायालयों का गठन करे ताकि दागी जनप्रतिनिधियों के मुकदमों का निपटारा शीध्रता से हो सके।
रीता सिंह