शरद यादव की खिसकती सियासी जमीन

दिल्ली के कंस्टीटयूशन क्लब में आयोजित जन अदालत में शरद यादव की पाखंड वाली आदर्शवाद राजनीति की पोल खुलते हुए सबने देख लिया। दरअसल किसी आदर्शवाद से प्रेरित होकर नि:स्वार्थ भाव की राजनीति करने का चलन अब राजनेताओं में नहीं बचा। वह किसी भी सूरत में सत्तासुख से वंचित नहीं रह सकते। निहित स्वार्थ सियासी गलियारों में इस तरह की आवाजें आना आजकल आम बात हो गई है। मौजूदा नीतीश-शरद में छिड़ी वर्चस्व की लड़ाई उसी का परिचायक मात्र है। सियासत की वैसाखी छिनने के बाद लंगड़े हो चुके शरद यादव अपनी सियासी जमीन को बचाने के लिए पिछले सप्ताह दिल्ली के कंस्टीटयूशन क्लब में करीब 14 विपक्षी दलों के नेताओं को एकत्र करके साझा मंच सजाया। जन अदालत का नाम दिए गए उस आयोजन में राहुल गांधी के अलावा कई बड़े नेता शामिल हुए।

सभी नेताओं ने शरद यादव के पक्ष में कसीदे पढ़े और उन्हें जननेता बताया। आयोजन में जितने भी नेता शामिल हुए सभी ने मोदी को बारी-बारी से कोसा। उन्होंने कहा कि शरद और नीतीश में तलाक कराकर मोदी-शाह की जोड़ी ने ठीक नहीं किया। राहुल गांधी ने जिस तरह से अपने तल्ख तेवरों में न्यायपालिका और शासन से लेकर सेना तक आरएसएस से जुड़े लोगों को नियुक्त किए जाने को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साधा। उनके उन तल्ख तेवरों से एक बात साफ हो जाती है कि विपक्ष की राजनीति में कांग्रेस अपनी मुख्य या नेतृत्वकारी भूमिका सुनिश्चित करने की कोशिश में है।

दरअसल भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाने के नीतीश कुमार के फैसले के बाद शरद यादव पूरी तरह से पैदल हो चुके हैं। वह किसी भी सूरत में अपनी सियासी जमीन बचाना चाहते हैं। इसलिए दिल्ली में वह अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। आयोजन में जितने भी नेता शामिल किए गए उनको बुलाने के लिए शरद यादव की टीम पिछले कई दिनों से पसीना बहा रही थी। नीतीश ने जबसे पासा पलटा है, तभी से जदयू पार्टी में दो फाड़ हो गए थे। पार्टी लगातार टूट की ओर बढ़ रही है। पार्टी दो खेमो में बंट गई एक नीतीश खेमा और शरद खेमा। दिल्ली में जन अदालत आयोजित कर शरद यादव नीतीश कुमार को सिर्फ यह दिखाना चाह रहे थे कि उनके साथ पूरा विपक्ष खड़ा है। पार्टी पर सबसे ज्यादा प्रभाव आज भी उनका ही है।

राजनेताओं की स्वार्थ की राजनीति लगातार एक्सपोज होती जा रही है। नेताओं के आपसी झगड़ों को देखकर पूरा देश हर रोज राजनीतिक पतनशीलता के दर्शन करता है। देखा जाए तो राजनीति में अब नैतिकता की बात करना रेगिस्तान के बीच नखलिस्तान की तरह माना जाने लगा है। मौजूदा समय में राजनीतिक पतनशीलता जिस कदर गिरी है उससे अब किसी पर भरोसा करना मुश्किल हो गया है। शरद यादव खेमे के कार्यकर्ता दिल्ली में नीतीश पर जमकर हमलावर हो रहे हैं।

राज्यसभा सांसद अली अनवर से मैंने पूरे मसले पर बात की तो अंसारी ने बताया कि बिहार के मुख्यमंत्री का जो विरोध कर रहे हैं वो ही ‘असली जदयू’ कार्यकर्ता हैं। अंसारी ने कहा कि नीतीश कुमार का जनाधार न के बराबर है। शरद यादव ने पार्टी को सींचा है। मैंने उनसे पूछा बिहार छोड़कर आखिर दिल्ली में ही क्यों इतना रायता फैला रहे हो। क्योंकि शरद यादव का जनाधार तो बिहार में है। बिहार की जनता के बीच जाओ। तो अंसारी ने कहा कि नीतीश के आका तो दिल्ली में ही बैठे है न! उनका इशारा भी पीएम मोदी और अमित शाह की तरफ था। शरद यादव का राज्यसभा से नेता पद से हटाया जाना जदयू कार्यकतार्ओं को सदमे की तरह लगा है इस बात को लेकर उनमें भारी नाराजगी है। मलतब साफ है कि कोई भी नेता बिना पद और सुविधा के नहीं रह सकता। बिना पद के उनका रूतबा कम जो हो जाता है।

शरद-नीतीश की तरह पासा पलटने की एक और बड़ी सियासी खबर दिल्ली से बाहर निकलने को आतुर है। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के भाजपा में शामिल होने के चर्चे गरमा रहे हैं। पिछले सप्ताह लगातार दो बार भूपिंदर हुड्डा की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात ने कांग्रेस के भीतर खलबली मचा दी है। हुड््डा-मोदी को मिलाने की मध्यस्थता वित्तमंत्री अरूण जेटली और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश ने की है। दरअसल भूपिंदर सिंह हुड्डा पिछले कुछ समय से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से खासे नाराज हैं। उनकी नारजगी प्रदेश में कांग्रेस की कमान उनके खेमे को न देने को लेकर है। भाजपा किसी भी सूरत में हुड्डा को शामिल कराना चाहती है। उसकी भी वजह है। हरियाणा में जाट समुदाय के नेता का अभाव पार्टी में है। उनके जुड़ने से इस कमी की भरपाई हो जाएगी।

भूपिंदर सिंह पूरे हरियाणा प्रदेश में करीब पंद्रह से ज्यादा विधानसभाओं पर सीधा प्रभाव रखते हैं। कांग्रेस की कुछ सालों से बुरी गति हुई है। बावजूद इसके उनके खेमे का एक भी विधायक नहीं टूटा। खैर, अरूण जेटली और नीतीश कुमार ने हुड्डा को भाजपा में लाने के लिए बड़ा सियासी दांव फिलहाल खेल दिया है। मेल-मुलाकात को लेकर मेरी उनके कुछ करीबी विधायकों से बातचीत हुई। मैंने उनसे पूछा अगर भूपिंदर हुड्डा भाजपा में शामिल होते हैं तो किस शर्त पर आएंगे। तो उन्होंने बताया कि उनके आने से सरकार में बड़ा फेरबदल होगा। प्रदेश में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए भाजपा शायद उनका प्रस्ताव स्वीकार भी कर सकती है। बात भी ठीक है बिना स्वार्थ के तो आजकल के नेता एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में आने से रहे।

नेताओं को कभी-कभार ही तो ऐसा अवसर प्राप्त होता है जब खुद की बोली लगाने का मौका मिलता है। नेताओं में अब जनहित की राजनीति लुप्त हो गई है। वह सिर्फ खुद का भला चाहते हैं। जहां उनको सुख-सुविधा ज्यादा दिखाई देती है, वहीं भाग पड़ते हैं। जनभावनाओं का उन्हें जरा भी ख्याल नहीं होता।

-रमेश ठाकुर

Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।