कर्नाटक में सत्तापक्ष कांग्रेस व जेडीएस के 11 विधायकों ने इस्तीफा देकर सत्तापक्ष के लिए बड़ा संकट पैदा कर दिया है। भले ही यह गठबंधन की आतंरिक कलह का परिणाम है, लेकिन इससे राजनीतिक अस्थिरता पैदा होने का माहौल बन गया है जो राज्य के हित में नहीं। दरअसल जेडीएस प्रमुख देवगौड़ा पिछले माह ही यह संकेत दे चुके थे कि कर्नाटक में मध्यकालीन विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। कांग्रेस भी जेडीएस को डावांडोल होती देखकर अपनी स्थिति को मजबूत बनाना चाहती है। सरकार का नेतृत्व कर रही जेडीएस के मुकाबले कांग्रेस के पास विधायकों की संख्या अधिक है लेकिन यह बात जेडीएस के लिए हजम करना आसान नहीं कि वह कांग्रेस को सत्ता सौंप दे। इस कशमकश में भाजपा द्वारा अपना दाव खेलना स्वाभाविक है।
11 विधायकों का इस्तीफा इस बात का प्रमाण है कि गठबंधन को चलाना अब न के ही बराबर है। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि कर्नाटक गंदी राजनीति की मिसाल बन गया है। यहां न केवल गठबंधन बल्कि प्रत्येक पार्टी में मुख्यमंत्री बनने की दौड़ इतनी ज्यादा है कि नए-नए हत्थकंडे इस्तेमाल किए जाते रहे हैं। गठबंधन सरकार अपने आप में राजनीतिक आदर्शों का उदाहरण पेश करते हैं। कोई एकआध ही पार्टी होती हैं जो राज्य में बिना हंगामे के अपनी सरकार चलाने में सफल होती हैं। कर्नाटक के मामले में तो उम्मीद बहुत कम है।
सरकार बनानी-तोड़नी यहां बाएं हाथ का काम समझा जाता है। भ्रष्टाचार के मामले में भी राज्य की सभी पार्टियां आरोपों में घिरी हुई हैं। नि:संदेह राज्य के राजनीतिक संकट ने लोकतंत्र का तमाशा बना दिया है जहां आदर्शों का कोई मूल्य नहीं। कुर्सी के लिए आदर्शों को कुचल दिए जाते हैं। यह बात कर्नाटक की जनता को समझनी होगी और राज्य के मौकाप्रस्त नेताओं को सबक सिखाना चाहिए। एक तरफ कर्नाटक कृषि की दुर्दशा के लिए चर्चा में है दूसरी तरफ राजनीतिक नेता राज्य की खुशहाली के लिए कोई ठोस कदम उठाने की बजाए अपनी कुर्सी बचाने में लगे है। राजनीति केवल कुर्सी हासिल करने के लिए नहीं बल्कि लोगों को बेहतर शासन देने के लिए होती है।
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