महाराष्ट्र में उठे राजनीतिक घमासान के बाद शिवसेना के एकनाथ गुट के साथ भाजपा की सरकार बन गई है। नियम अब यही है कि सरकार अपना काम करे और विपक्ष अपनी जिम्मेवारी संभालें। लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है, अभी राजनीतिक तख्ली कायम है। उद्धव ठाकरे के लिए सरकार का बिखरना बड़ा झटका है और वह सरकार पर लगातार हमले कर रहे हैं। सत्ता में आई पार्टी अभी जीत का जश्न मना रही है। वास्तविकता में राजनीतिक खींचातानी में पहले ही राज्य प्रशासन का करीब एक महीना बर्बाद हो गया है। नई सरकार अपने अधर में लटक रहे प्रॉजैक्टों को पूरा करके लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरे। सरकार के पास अभी हल करने के लिए बहुत से मामले हैं, खासकर किसानों को मंदहाली से निकालना होगा।
आवाजाही, पर्यावरण और उर्जा क्षेत्र के लिए ठोस निर्णय लेने होंगे। नि:संदेह हमारा लोकतंत्र मजबूत है और विपक्षी पार्टियों को इस वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए कि विधायकों की पूरी संख्या नहीं तो विपक्षियों की भूमिका निभाओ। विपक्षियों के पास अवसर होता है कि वह जितने बचे हैं, लोगों में जाएं और उनके मामले सरकार तक पहुंचाएं। वास्तविकता में आगामी चुनावों की तैयारी कोई अलग चीज नहीं होती या केवल रैलियों तक सीमित नहीं होती। लोगों के लिए काम करें, लोगों के साथ मिलना-जुलना और उनके मामलों को हल करवाने की कोशिश करना कई रैलियों से अधिक दमदार होता है। यह तथ्य हैं कि चाहे रणनीतियों पर शतरंजी चालें राजनीति का अटूट हिस्सा बन गई हैं लेकिन फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि काम या लोक सेवा से बड़ी कोई रणनीति नहीं हो सकती।
स्थानीय स्तर पर नेता अपने गुणों और काम के चलते बड़ी-बड़Þी पार्टियों को मात दे जाते हैं। राजनीति को अपना अधिकार मानने की गलती ही राजनीति में बड़ी गलती होती है। काबलियत प्र्रति हमेशा जागरूक रहकर राजनीति में रहना संभव है। जीत-हार से कहीं अधिक महत्व सिद्धांत का होता है। भले ही सिद्धांत की राजनीति में जोड़-तोड़ को बुराई के तौर पर देखा जाता है लेकिन जब गठबंधन ही राजनीति की हकीकत बन जाएं तब गठबंधन बनाने और कायम रखने की रणनीति भी राजनेताओं की काबलियत का हिस्सा बन जाती है। मौका छिन जाने पर तल्खी के रास्ते पर जाने की बजाय राजनीति के बदलते तरीकों को समझने और संयम रखने की आवश्यकता है।
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