पुलिस प्रणाली में सुधार की दरकार

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सरकार को जनता का भरोसा जीतने और राज्य में कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए नापाक खादी-खाकी और भ्रष्ट अफसरों के गठजोड़ को तोड़ना होगा। लेकिन यह तभी संभव होगा जब राज्य सरकार पुलिस प्रणाली में सुधार की दिशा में आगे बढ़ेगी। सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश की सभी राज्य सरकारों को चाहिए कि वह पुलिस प्रणाली में सुधार की दिशा में आगे बढ़े। वे ऐसा कर राज्य में कानून-व्यवस्था में सुधार की नींव डाल सकती हैं।
गत दिवस पहले उत्तर प्रदेश राज्य के कानपुर में एनकाउंटर में मार गिराए गए शातिर अपराधी विकास दुबे की मौत के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने जरुर राहत की सांस ली है। लेकिन अब जिस तरह विकास दुबे का कच्चा-चिठ्ठा उजागर हो रहा है और उसके रिश्ते-नाते विधायकों, मंत्रियों, प्रशासनिक अफसरों और कारोबारियों से जुड़ रहे हैं, वह राज्य सरकार की मुश्किलें बढ़ाने वाला है। नित-नए सवाल उठने शुरू हो गए हैं और देर-सबेर राज्य सरकार को सतह पर उभरते सवालों का जवाब तो देना ही होगा। अब प्रदेश की जनता यह देखना चाहती है कि विकास के मददगारों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई होती है या नहीं। अगर सरकार को अपराधियों और उनके मददगारों को कड़ा संदेश देना है तो ऐसे लोगों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करनी ही होगी। ऐसा इसलिए भी कि इन ताकतवर लोगों की मदद से ही विकास दुबे को राजनीतिक व पुलिस संरक्षण मिला और उसका आपराधिक साम्राज्य फला-फूला।
सरकार को जनता का भरोसा जीतने और राज्य में कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए नापाक खादी-खाकी और भ्रष्ट अफसरों के गठजोड़ को तोड़ना होगा। लेकिन यह तभी संभव होगा जब राज्य सरकार पुलिस प्रणाली में सुधार की दिशा में आगे बढ़ेगी। सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश की सभी राज्य सरकारों को चाहिए कि वह पुलिस प्रणाली में सुधार की दिशा में आगे बढ़े। वे ऐसा कर राज्य में कानून-व्यवस्था में सुधार की नींव डाल सकती हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि राज्य सरकारें किस्म-किस्म का बहाना गढ़ पुलिस प्रणाली में सुधार से बच रही हैं। कभी धन की कमी का रोना रो रिक्त पड़े लाखों पदों को न भरने की दुहाई देती हैं तो कभी संसाधनों की कमी की वजह से थानों के आधुनिकीकरण न करने का बहाना बनाती हैैं। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। इससे हालात बदतर ही होते हैं। याद होगा गत वर्ष पहले जब गृहमंत्रालय ने दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की 153 अति महत्वपूर्ण सिफारिशों पर विचार करने के लिए मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाया तब अधिकांश राज्यों के मुख्यमंत्री अनुपस्थित रहे। इस सम्मेलन में पुलिस सुधार पर चिंतन-मनन होना था।
एजेंडा के तहत पुलिस जांच, पूछताछ के तौर-तरीके, जांच विभाग को विधि-व्यवस्था विभाग से अलग करने, महिलाओं की 33 फीसदी भागीदारी बढ़ाने के अलावा पुलिस की निरंकुशता की जांच के लिए विभाग बनाने पर चर्चा की जानी थी। लेकिन वर्षों गुजर जाने के बाद भी कोई रोडमैप तैयार नहीं हो सका। पुलिस सुधार के लिए जब गृहमंत्रालय द्वारा राज्यों से राय मांगी गयी तब भी सिर्फ आधा दर्जन राज्यों ने ही पुलिस सुधारों पर अपनी राय से गृहमंत्रालय को अवगत कराया। समझा जा सकता है कि राज्य सरकारें पुलिस प्रणाली में सुधार को लेकर किस हद तक उदासीन हैं।
देखें तो आज भी राज्य सरकारें पुलिस सुधार के मसले पर अपना रुख स्पष्ट करने को तैयार नहीं हैं। पुलिस प्रणाली में सुधार नहीं होने से नाराज सर्वोच्च अदालत भी बार-बार केंद्र व राज्य सरकारों को आड़े हाथों लेती रही है। याद होगा अभी गत वर्ष पहले ही उच्चतम न्यायालय ने पुलिस व्यवस्था में पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को ताकीद किया था कि वह एफआईआर दर्ज होने के 24 घंटे के भीतर उसे आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड करें और जहां इंटरनेट व्यवस्था दुरुस्त नहीं है वहां एफआईआर को 72 घंटे के दरम्यान सार्वजनिक करें। लेकिन गौर करें तो इसका अनुपालन सिर्फ कागज पर ही हो रहा है जमीन पर नहीं। इसी का नतीजा है कि आमजन में पुलिसिंग व्यवस्था को लेकर आक्रोश है और अपराधियों का हौसला बुलंद है। याद होगा गत वर्ष पहले सर्वोच्च अदालत ने 1861 के भारतीय पुलिस कानून में बदलाव करने का भी सुझाव दिया। लेकिन इस दिशा में कारगर पहल नहीं हुई। हां, यह सही है कि केंद्र सरकार ने कुछ अनावश्यक कानूनों को खत्म किया है। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है।
केंद्र सरकार को चाहिए कि वह पुलिस प्रणाली में सुधार के लिए राज्य सरकारों को आर्थिक मदद के साथ-साथ उन पर दबाव बनाए। उल्लेखनीय है कि सितंबर 2006 में न्यायमूर्ति वाई के सब्बरवाल की अध्यक्षता वाली खण्डपीठ ने यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पुलिस सुधार के आदेश दिए थे। 1996 में दाखिल इस याचिका में मांग की गयी थी कि उच्चतम न्यायालय केंद्र व राज्य सरकारों को उनके यहां पुलिस की खराब गुणवत्ता और प्रदर्शन को सुधारने का निर्देश दे। इस परिप्रेक्ष्य में उच्चतम न्यायालय ने केंद्र और राज्य को सात अहम सुझाव दिए जिसके तहत स्टेट सिक्योरिटी कमीशन का गठन, डीजीपी का कार्यकाल दो साल सुनिश्चित करने के अलावा आईजी व अन्य पुलिस अधिकारियों का कार्यकाल सुनिश्चित करना था। लेकिन इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाये गये।
ध्यान देना होगा कि इससे पहले भी पुलिस प्रणाली में सुधार के लिए विधि आयोग, रिवेरियो कमेटी, पद्मनाभैया कमेटी, मलिमथ कमेटी तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया। इन आयोगों ने समय-समय पर पुलिस प्रणाली में सुधार के ढ़ेरों उपाए सुझाए। लेकिन इन सभी सुझावों को कूड़ेदान में डाल दिया गया। यानी समझें तो राज्य सरकारें पुलिस प्रणाली में सुधार को बिल्कुल तैयार नहीं हैं। वह मौजूदा व्यवस्था को ही बनाए रखना चाहती हैं। यहीं वजह है कि कानून-व्यवस्था की स्थिति बदहाल होती जा रही और अपराधियों पर नकेल नहीं कस पा रहा है।
दूसरी ओर पुलिस की छवि लगातार बिगड़ती जा रही है। अगर वह अपराधियों को मार गिराती है तो उस पर फेक एनकाउंटर का आरोप लगता है और सियासी दलों द्वारा हल्ला-गुल्ला मचाया जाता है। इस तरह के माहौल से लोगों की सुरक्षा दांव पर होती है और पुलिस का राजनीतिकरण बढ़ता जाता है। दरअसल यहां समझना होगा कि पुलिस प्रणाली में सुधार न करने की मुख्य वजह यह है कि राज्य सरकारें पुलिस को अपने हाथ की कठपुतली बनाए रखना चाहती हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि अगर पुलिस प्रणाली में सुधार हुआ तो उनकी मनमर्जी खत्म हो जाएगी और वे मनमाने तरीके से पुलिस पर न तो दबाव बना पाएंगे और न ही मनमाने तरीके से उनका तबादला कर पाएंगे।
यह सच्चाई है कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में सरकारें अपने हित के लिए पुलिस का जमकर दुरुपयोग करती हैं। कभी वह अपने राजनीतिक विरोधियों को निपटाने में तो कभी नाकामी पर पर्दा डालने के लिए। यह पहल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि 14 वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के आधार पर केंद्रीय राजस्व में से राज्यों का हिस्सा 32 प्रतिशत से 42 प्रतिशत करने के बाद पुलिस सुधारों के लिए केंद्रीय सहायता बंद हो गयी थी और राज्य सरकारें अपना हाथ खड़ा कर चुकी थी। उनका कहना था कि उनके पास इतना पैसा नहीं है कि पुलिस का आधुनिकीकरण करें और रिक्त पदों को भरें।
लेकिन उम्मीद है कि केंद्र सरकार की इस पहल से पुलिस सुधार की गति तेज होगी और राज्य सरकारें अपना दायित्व निभाएंगी। उल्लेखनीय है कि पुलिस सुधार के लिए आवंटित रकम का 80 प्रतिशत स्वयं केंद्र सरकार द्वारा मुहैया कराया जाएगा जबकि शेष यानी 20 प्रतिशत रकम का अंशदान राज्य सरकारों को करना होगा। इस रकम से पुलिस के जवानों को आधुनिक हथियारों से लैस किया जाएगा और नए आधुनिक वाहन एवं वायरलेस खरीदे जाएंगे। आवश्यकता पड़ने पर किराए पर हेलीकॉप्टर लेने की भी व्यवस्था की जा सकेगी। अब जरुरत इस बात की है कि केंद्रीय मदद के बाद राज्य सरकारें अपने उत्तरदायित्व का भलीभांति निर्वहन करें।
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