यह चिंताजनक है कि देश में सख्त बाल कानून की मौजूदगी के बावजूद भी बाल अधिकारों का उलंघन लगातार बढता जा़ रहा है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के मुताबिक विगत वर्षों में बाल अधिकारों के उलंघन की 4,202 शिकायतें दर्ज की गयी हैं। इसमें से 1,237 शिकायतें बच्चों के यौन उत्पीड़न, बाल मजदूरी और बच्चों की तस्करी से जुड़ी है।
सरकार के आंकड़ें भी बताते हैं कि वर्ष 2013-14 में बच्चों के शोषण के 211 मामले दर्ज किए गए जिसमें यौन उत्पीड़न के 159 मामले, बाल श्रमिक संबंधी 39 मामले और बच्चों की तस्करी के 13 मामले शामिल हैं। इसी तरह वर्ष 2014-15 में बच्चों के शोषण के 304 मामले दर्ज किए गए जिसमें यौन उत्पनीड़न के 240 मामले, बाल मजदूरी संबंधी 48 मामले और बच्चों की तस्करी के 16 मामले शामिल हैं।
इसी तरह 2015-16 बच्चों के शोषण के 215 मामले दर्ज हए। यह स्थिति तब है जब देश का संविधान बच्चों के संरक्षण और एवं अधिकारों की रक्षा के लिए कई सुविधाएं देता है। गौर करें तो संविधान के अनुच्छेद 15 (3) राज्य को बच्चों एवं महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए अधिकार देता है। अनुच्छेद 21 (ए) राज्य को 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य तथा मुफ्त शिक्षा देना कानूनी रुप से बाध्यकारी है।
अनुच्छेद 24 में बालश्रम को प्रतिबंधित तथा गैर कानूनी कहा गया है। अनुच्छेद 39 (ई) बच्चों के रक्षा व स्वास्थ्य की व्यवस्था करने के लिए राज्य कानूनी रुप से बाध्य है। इसी तरह 39 (एफ) के मुताबिक बच्चों को गरिमामय विकास के लिए आवश्यक सुविधा उपलब्ध कराना राज्य की नैतिक जिम्मेदारी है। इसके अलावा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23 और 24 में स्पष्ट व्यवस्था है कि मानव तस्करी व बाल श्रम के अलावा 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानें और जोखिम भरे कार्यों में नहीं लगाया जा सकता।
1976 का बंधुआ मजदूरी उन्मूलन एक्ट भी बच्चों को संरक्षण प्रदान करता है। भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने भी 16 खतरनाक व्यवसायों एवं 65 खतरनाक प्रक्रियाओं में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को रोजगार देने पर रोक लगाया है। कानून का उलंघन रोकने के लिए नियोक्ताओं के खिलाफ कड़े दंड का प्रावधान किया गया है। लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित किया गया है कि शिक्षा के समय के उपरांत बच्चा विज्ञापन, फिल्म टेलीविजन धारावाहिकों या किसी मनोरंजन या किसी खेल गतिविधियों में काम कर सकता है।
दुर्भाग्यपूर्ण यह कि इनमें से 40 प्रतिशत निरक्षर हैं और कभी स्कूल भी नहीं गए। इनमें से 26 प्रतिशत बाल मजदूर 9 से 11 साल की उम्र के हैं। जबकि 20 प्रतिशत 11 से 12 साल, 34 प्रतिशत 12 से 13 साल और शेष इससे अधिक के उम्र के हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक बनी एक रिपोर्ट के अनुसार 25 प्रतिशत बाल श्रमिक शहर में रहते हैं जबकि शेष तीन-चौथाई गांवों में रहते हैं। बाल श्रमिकों के साथ कितना शोषण होता है इसी से समझा जा सकता है कि बाल श्रमिकों को औसतन 500 से 1200 रुपए प्रतिमाह की मजदूरी मिलती है। केवल 15 प्रतिशत बाल श्रमिकों को ही 3000 रुपए मानदेय मिल पाता है।
इनमें से 12 प्रतिशत बाल श्रमिक प्रतिदिन 8 से 10 घंटे जबकि 23 प्रतिशत 10 से 12 घंटे काम करते हैं। 12 से 16 घंटे काम करने वाले बाल श्रमिकों की संख्या भी बहुतायत है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी स्वीकार चुका है कि उसके पास बाल श्रम के हजारों मामले दर्ज हैं। सरकार को चाहिए कि बाल श्रमिकों की सुरक्षा व पुनर्वास के लिए जरुरी कदम उठाए। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी कह चुका है देश में हर साल चालीस हजार से अधिक बच्चे गुम होते हैं। यह स्थिति तब है जब मंत्रालय द्वारा लापता बच्चों को ढुंढ़ने के लिए ट्रैक चाइल्ड और खोया-पाया पोर्टल चलाया जा रहा है। स्वयंसेवी संगठनों का मानना है कि इन लापता बच्चों का इस्तेमाल बाल श्रमिक के रुप में किया जा रहा है।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा देश की शीर्ष अदालत में दाखिल अपने हलफनामें में स्वीकारा जा चुका है कि 2013-15 के दौरान कुल 25,834 बच्चे लापता हुए। इसी जरह राज्यसभा में सरकार की ओर से 79,721 बच्चों की लापता होने की जानकारी दी गयी। यही नहीं बच्चों को नौकरी की लालच देकर भी उन्हें बड़े-बड़े महानगरों में काम करने के लिए ढ़केला जा रहा है। विडंबना यह भी कि इन लापता बच्चों का इस्तेमाल सिर्फ बाल श्रमिक के रुप में ही नहीं बल्कि वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी जैसे घृणित कार्यों में भी किया जा रहा है।
एक जिम्मेदार राष्ट्र और संवेदनशील समाज के लिए यह स्थिति शर्मनाक है। आंकड़े बताते है कि भारत 14 साल से कम उम्र के सबसे ज्यादा बाल श्रमिकों वाला देश बन चुका है। गत वर्ष पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने बाल मजदूरी को लेकर सख्त नाराजगी व्यक्त करते हुए सरकार, दिल्ली पुलिस और श्रम विभाग को ताकीद किया कि बाल मजदूरी से जुड़ी शिकायतों पर 24 घंटे के भीतर कार्रवाई हो और बचाए गए बच्चों को मुआवजा देने और उनके पुनर्वास का काम 45 दिनों में सुनिश्चित हो। लेकिन इस पर अमल होता नहीं दिख रहा है।
चैंकाने वाला तथ्य यह भी कि माफिया तत्व अत्यंत सुनियोजित तरीके से बच्चों का इस्तेमाल हथियारों की तस्करी और मादक पदार्थों की सप्लाई में करने लगे हैं। सरकार के अलावा समाज और स्वयंसेवी संस्थाओं की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह बच्चों के अधिकारों का उलंघन रोकने के लिए आगे आएं। सिर्फ सरकार के कंधे पर बच्चों के शोषण को रोकने की जिम्मेदारी सौंपकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता।
रीता सिंह
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